दगति-नाचिनि दुगा जय जय, काल-विनाशिनि काली जय जय उमा रमा बऋह्याणी जय जय, राधा सीता रुक्मिणि जय जय साम्ब सदाशिव, साम्ब सदाशिव, साम्ब सदाशिव, जयं शंकरं हर हर शकर ॒दुखहर सुखकर अघषनतम-हर हर हर कंकर हरे राम हरे राम शम राम हरे हरे। हरे ष्ण हरे हष्ण क्ष्ण कृष्ण हरे हरे जय-जय दुगा, जय मा तारा। जय गणश्च जय जुभ-आमारा जयति शिवा-शिव जानकिराम्‌ गौरीशंकर सीताराम जय रघुनन्दन जय सियाराम } व्रज-गोषी-प्रिय राघेश्याम रघुपति राघव राजाराम पतितपावन सीताराम

[ संस्करणा १,५०,००० ||

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आरत ₹.७.५० २२० ७.५.९०

विवेशमे १०९० ( जय जय॒ विश्वरूप हरि जय जय हर अखिलातमन्‌ जय जय |

(१५) जय वरा जय जगत्पते गौरीपति जय॒ रमापते , (१५ श्िलिग)

सावि यूल जय पावकं रत चन्द्र जयति जय सत्‌-चित्‌-आनद भूमा जय जय॒ [ इस दक मूल्य .-

= ~ल ^ ` सम्पादक-दनुमानपरसाद्‌ पोदार, चिम्मनलखाल गोस्वामी, पम्‌० ५०, शाखी - | अदरकमकागश मोतला जालान, गीताप्रेस, गोरखपुर

श्रखिलटबहाह्र गम

मानव-जीबन किंतना क्षणभङ्कर हम सोचते कुक हैः ' विधाताकें विधानसे हो जाता है ऊख ओर ही ! श्रीसल्बहदुरजी राखरीका . जा सफट-यात्राका खागत होनेवाल था, वहां उनकौ शवधरोत्राका जद निकला त्रे सरे विश्वमे शान्ति चाहते थे। युदमं तां उन्टं बाध्य्‌ हकर बद्त्त होना पड़ा था अपनी सङ्कल इच्छके विरू पर भगवानूकम करूपासे उन्ं सफर्ता मिली ! तासकद-यात्रामं का विश्च-रान्तिका महान्‌. उद्य सदा उनके सामने रहा ओर उन्होने अन्तमं बरप्रयोग करन समञ्चोतेमे सफलता प्राप्ठ की वे भारतके ही नही, विश्वके महान्‌ सवक उनः = यों चङे जनते अनञ्च वज्जपात हो गया सारा संसार शोकमश्च हे आज भारतम वे जन-जनके श्रिय थ, इस भयानक पिय वियोगते भारतका जन-जन सभी संतत्त घरवाखक; खास करके श्रीछिता बहिनजीके दुःखकी कोद सीमा नहीं पर उनकं खयि यह्‌ ओरवकी बात है, उनके महान्‌ आत्मा खामीने विश्वकी सेवामें अपना बलिदान किया है वे परम पुण्य-जीवन थे ओर सच्चे अथमे धार्मिक

गीतागरेस तो उनके अरैतुक उपकारोके छ्य सदासे ऋणी है बड़ा निकटा घरका सम्बन्ध था गताप्रेससे उनका उनके अभावमं गीताप्रस आज एक बहुत बड़े अभावका अनुभव कर रहा डे पर विधाताके विधान- के सामने कुछ भी वशा नहीं

इस प्रकारकी मृ्युको देखकर सबको शिक्षा अहण करनी चाहिये ` ओर रागद्रेषादिसे मुक्त होकर जीवनको भगवत्‌-सेवामे समर्पित कर देना चाहिये

---*)- ल्ल

"कल्याण प्रमी पारकं जोर अहक स्र निवेदने

१. वर्वमानमे प्रायः सारी दुनिया अधर्मे नाता _जोडे हुए दै राजनीतिक र्ध तो धमव

बहिष्कार दही, धार्मिक जगते भी विपरीत तामसं बुद्धिके कारण धमक नामपर प्रायः अधर्मने ही

अङ्खा जमा रक्खा हे 1 सर्वत्र ही ्र्टाचार, दुराचार व्यभिचारः, अनाचार, अत्याचार, असदाचार,

| मिभ्याचारका वितर हो रहा दे सरगोकौ धर्मस चि ओर अधर्ष गौर-बद्धि हो गयी है यह धूर्मनाश्च जमत्को अनन्त दुःखमय सर्वनाशकी ओर्‌ सिये रहा है एसे समयम इस "धमाका

प्रकाशन इसीलिये किया जा रहा है कि जिससे धर्मप्राण भारतके आत्सविस्छत लोग पुनः धर्मका मह समश्च ओौर धर्मकी रक्षा करके सुरक्षित हय इष ्सोङय भूर श्षा्चतधर्मके विविध सूपो तथा

अ््खोपर उदादरणसहित प्रक डासा गया तथा धर्मके त्को भलीभोति समञ्चानेका प्रयत्न फिया

गया धषपालनङ महचपूणं चसक साध स्मीन तथा सदे चित्र दिये गये है, जिससे अङककी (> प्रचार = = ~~ रा

उपादेयता ओर भी बढ़ गयी इसका जतना ह॑ प्रचार दथ, उतना ही धर्म-ज्योतिका धिस्तार होगा

ओर मार्मभ्रट अशान्त दुखी मानव पुनः सन्ाग॑परं आकर सच्चे सुख-शान्तक। भरप्त ऋर्‌ सकेगा

२. जिन सजनेकि रुपये मनीआईरढारा चुके है, उनको अङ्क भेजे जनेके वाद्‌ शेष रहकोकि नाम बी पी० जा सकेगी | अतः जिनको ग्राहक न्‌ रहना ह, वे कृपा करके मनादीका

काडं तुरंत लिख दै ताकि घी पी० भेजकर “कुस्याण'को व्यथं नुकसान उडाना पड

दा

३. मनीडर-कूषनते ओर बी° पी० भेजनेकै स्यि लिखे जनेवारे पतरम स्पषटरूपसे अपना नाम, पूरा पता ओर प्राहक-पंख्या अवस्य लि ग्राहक संख्या याद हो तो "पुराना ग्राहक! रिख दे। नये ग्राहक बनते हय तो "नया राक! किखनेकी कृषा करं मनीआडंर मेनेजर (कल्याणक नाम्‌ भेज उसमें किसी व्यक्तिका नाम किख

४. पराह संख्या या "पुराना ग्राह! लिखनेसरे आपका नास नये ग्राहकोमं दजं हो जायगा इससे आपकी सेवा धमाङ्' नयी ग्राह संख्यासे परहैचेमा ओर पुरानी प्राहक.संख्यासे वी० पी° भी ची जायगी ठेसा भी हो सकता है कि उधरसे आप मनीभाङंरदारा शूपये भजँ ओर शरसे वरी° पी० चली जाय दोनों ह्य यितिरयोषिं आप कृषपूक बो पौ लोटय नही, प्रयत्न करके किन्दीं सनको (नय ग्राहक' बनाकर उनका नाप्-पता साक-साफ किख भेजने ढषा कर इस कपापूरण प्रयतनसे आप “कल्याण के प्रचारये सहायक बनेगे

५, आपके "विरेषाङ्कके लिफापर आपका जो प्राहक नंबर ओर पता लिखा गया है, उसे आप लूब सावधानीसे नोट कर छं रजिष्ट्री या वी० पी० नंबर भी नोट कर लेना चाहिये

६, धर्माः सब ॒ग्राहकोके पास रजिस्टर-पोर्टसे जायगा हमरोग्‌ ज्दी-से-जस्दी मेजनेकी चेष्टा करेगे; तो भी सब अङ्के जनेमे रुगभग दो-तीन सपाह तो रुग्‌ ही सक्ते इसलिये ग्राहक महोदर्योकी सेपरामे 'विशेषङ््‌' ग्रह संख्याक क्रमानुपार जायगा यदि द्र हो जाय तो परिथिति समञ्चफर कृषाल ग्राहको हमे क्षमा करना चाहिये ओर धेयं रखना चाहिये ..

७, (क्याणः- व्यवस्या-विभाग, कल्याण'- सम्पादन-विभाग्‌, कटयाण कस्पतरः' (अग्रज), (साधक सद्ग ओर 'गीता-रामायण-प्रचार सङ्ग'के नाम गीताप्रे्फे पतेपरं अल्ग-अकग पत्र, पारसर) वैके, रजिस्टर, मनीआईर, बीमा आदि भेजने चाहिये तथा उनपर 'मोरखपुर' सिखकर पो० गीताप्रेस ( गोरखपुर )--इघ प्रकार छिखना चाहिये

छु---

(अ

<" किसी अनिवार्यं कारणव, कल्याण) वंद हो जाय तो जितने अङ्क मिक हौ, उतनेमे ही वरव चदा समात्‌ सम्चना चाहिय भर्योरि केवल इष विदोषा्कका दी मूल्य ₹० ७.५० ( सात रूपये

पचास नये पेसे )

९- जिन ग्राहर्कोका सजञिष्द्‌ मूल्य आयाहुभा है, उनकरो यदि वर्तमान परिखितिवश स॒जिष्द्‌ अङ्क | जानेकी सम्भावना नहीं होगी तो अजिल्द विदोषाङ्‌ ओर जिल्द्‌-चार् ₹० १.२५ मनीआडार्‌ लया | दिया जा सकेगा इस बार "विशेषाङ््‌के प्रकाशने कई कारणोसे विलम्ब हो गया है इषके छ्यि

हम क्षमाप्रा्थना करते

१०. एक सौ रुपये एक साथ देनेपर आजीवन ग्राहक बनाये जाते हे जिनको आजीवन

ग्राहक बनना हो वे एक सों रुपये मेजकर ग्राहक बन जा्यँ। जो सजन वर्तमान वर्षे ₹० ७.५० मेज

चुके हो, वे रु० ९२.५० ओर्‌ भेजकर आजीवन ग्राहक बन सकते है जवतक वे जीवित र्हंग ओर जबतक कस्याण' बद्‌ नहीं होगा, तबतक "कल्याण" उन्दं मिरता रहेगा

कस्याण"के पुराने प्राप्य विरोषाङ् ( डकल सतम हमारा है ) िद्‌सस्कृति-अङ्क-शृषठ-सं° ९०४.रल-संघ्या २४४कबिता ४६.संगृहीत २९.चित्र २९८.मूल्य ६.५० मानवता-अङ्क- ृष्-सं° ७०४, मानवताकी प्ररणा देनेवाटे सुन्दर ३९ बहुरंगे, एकः दुर्गा, १०१ एकरंगे ओर ३९ रेखाचित्र मूल्य - --- ~^ ३२- संक्षिप्त शिव-पुराणाङ्- प्रसिद रिवपुराणका सषि सार-खूप है इसमे ७०४ पृष्ठोकी ठेस पान्य- सामभ्री है, बह्रंगे चित्र १७, दोरगा रेलाचित्र १, सादे १२ ओर १३८ रेखाचित्र है मूल्य ₹० ७.५०, सजिल्दका --" ०००८

छ-- सिप बहमवेवततपुरणाङ् षा ७०४) बहुरगे चित्र १७, दोरंगा १, इवरगे ६, रेखाचित्र ९२० इस अङ्कम भगवान्‌ श्रीढृष्णाकी विविध ीखओंका वडा ही रोचक वर्णन है मूल्य ७.५० व्यस्थापक कल्याण, पो गीताप्रेस ( गोरखपुर ) [116 ९1, (11.91.411

1. 1176 @ाष्ह-¶9्र४ प्िप0लः8-1 2० ना ( 4० पऽप्ररठ (0णाणलणाश्चफ 00 11€ 8144९०१९ 4107 117 6 ०0०8] 580816८४ {68 7 ॥+#0 एगृप्०68, पपिप्रणलः [1 18 0पा 8100 @ 18. 2.50 ०. €461 )

2. 116 81०7818 पणन, ए, णा ( 118} {78818107 0 0018 [ए ४० छा, 8००1६ ( 1.46 प्रः) 804 280००18 -श्ा कध 16 0पाष्वापव] 5808 (€ 116 181158ए218 1111 वरद्रा094 @ 18. 2.50 पए, €2०ा॥ ) ( पिण्ण7@8 1, 1 ३० [प़् (कण्णाभरणषणटठ ०015 110 1 त्‌ प्रा [ए ०त्‌ [ए5॥ प्श 8०01६ ०४ ° 610८६ )

3. ¶© भवाण्णातढषणछक8 पिप्यटा, 7, आ, [ए ०7 18. 12.50 "‰. ( 4० ४०६ पवपव 0णह्ापम्‌ उव्णञूतत। 16६ त] १॥६ व) ११, 7०१५ १४ 4०१ ^ 7१४ २।द्‌१३ {€ पवा्णाात रद्र 9०१३ (@ 28. 2.50 १. €ब्ला. ) 2081426 17९९ 1 91] ९2866.

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श्रीह रिः

& 11 [3 वमाङ्ख = घय सची विषय-सूची विषय पृष्ठ-संख्या विषय पृष्ठ-संख्या १-घर्मरक्नक धर्मस्तरूप भगवान्‌ श्रीकरष्णकं १३-धरमं अनुरीखन ( अनन्तश्री जगदूर

बन्दना [ कविता | २-धर्मस्तवना्टकम्‌ [ संस्कृत पथ्य ] (पाण्डव पं श्रीरामनारायणदत्तजी यास््री ध्म) सादिव्याचार्यं ) २-धर्मकी महत्ता [ कविता | ४-श्रीजगदुर आश्रहंकराचाययं तथा सनातनधर्म ( अनन्तश्रीविभूषित जगहर रंकराचायै श्रीदवारकाद्वारदापीटाधीश्वर श्रीमदमिनव- सचिदानन्दती्थं सवामीजी मदाराज- का प्रसाद्‌ ) 6; ५-सर्वोपरि धम ( अनन्तश्रीविभूषित जगहरुखं दंकराचाय श्रीकराञ्चीकासकोिपीठाधिपति श्रीपवामी चन्द्ररोखसेनद्र सरस्वती जी सदाराजक्रा श्ुभाशीर्वाद ) ६-धार्मिक चेतना ( श्रीश्चुगेरीमठाधीश्वर अनन्त- श्रीविभूषित जगहर श्रीरंकराचायंजी महाराजके सदुपदेश )

७-सनातन-धर्मका स्वरूप ( मूल अंग्रेजी

केखक--अनन्तश्रीविभूषित जगुर श्रीगोवर्धनमठाधीश्वर ब्रह्मलीन स्वामीजी

श्रीभारतीकृष्णती्थंजी महाराज; अनुवादक- श्रीभरुतिशीलजी शर्मः तकरिरोमणि ) ` ˆ " -धर्मका स्वरूप ओर माहात्म्य पूज्यपाद अनन्तश्री स्वामीजो श्रीकरपाच्रीजी महाराजका ) -सुख-शान्तिकरा एकमात्र उपाय-धमं ( स्वामीजी श्रीचिदानन्दजी सरस्वती महाराज ) ˆ" १०--ध्मं अविनाशी त्व दै एक ॒मदात्माका प्रसाद्‌ ) 2 ११-हमारा सच्चा साथी कौन है घम (परमार्थनिकेतन- संत स्वामीजी श्रीभजनानन्दजी महाराज) १२-धर्मचक्रं प्रवतंताम्‌ ( अनन्तश्री स्वामीजी भीअनिरुद्धाचांजी वैकटाचार्यजी महाराज )

0

4

१३

१८

१७

रामानुजाचायं आचायेपीठाधिपति सखवामीजी श्रीराघवाचायेजी महाराज ) १४- धसं ( महात्मा श्रीसीतारामदास ओंकारनाथजी सहाराज ) ५: १५-वेष्णवध्मं ( मागवताचायं प्रयुपाद श्रीमान्‌ प्राणक्रिद्योर गोस्वामी महाराज, एम्‌ ए०)

विद्यामूषणः सादित्यरत्न ) १६- धार्मिक एकता ( स्वामीजी श्रीरामदासजी महाराज ) धः

१७-हमारा धम्म ( श्रीश्रीअरविन्द ) १८- स्वधर्म [ (गीताप्रवचनःसे संकलित | ( श्रद्धेय संत श्रीविनोवा भावे) “*“ १९-मानव-घम॑का संक्षिप्त स्वरूप (श्रद्धेय १० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर महोदय ) २०-धर्मके लक्षण ( श्रद्धेय खामीजी श्रीविद्या- नन्दजी विदेह महोदय ) ०९८ २१-धम॑करा तेजस्वी रूप श्रद्धेय आचाय श्रीतुकसी सदोदय ) २२-धर्मकी महत्ता ( महामहिम डा० श्रीसर्वेपर्टी राधाकृष्णन्‌ महोदय-राष्टूपति ) २२-घर्मका संदेश ( महामान्य श्रीद्बहादुरजी शाखी, प्रधान मन्त्री ) 9; २४-धर्मका खरूप ( महामहिम ॐं° श्रीसम्पू्णा- नन्दजीः राज्यपालः राजयख्ान ) क: २५-श्रेष्ठतमसे भी श्रेष्ठ आदरं ( महामहिम शी- विश्वनाथदासजी राज्यपारः उत्तरदेश ) ˆ“ २६-धर्मका वास्तविक अथं ( माननीय श्रीश्ीप्रकाशजी ) २७-गीता-धर्म ( पूज्यपाद श्रीप्रसुदत्तजी ब्रह्मचारी ) २८-घमं ओर उसका प्रचार ( ब्रह्मलीन श्रद्धेय श्रीजयदयाकजी गोयन्द्का ) २९-भारतीय समाज-मर्यादाके आदं श्रीराम ( ीश्रीरामनाथजी (सुमनः ) ५५

१९

२९१

२८

३३ ३५

२३६

३९

४९

४७

४९

८६४

५७

३०-सदाचार.भम॑परायण भगवान्‌ शीरामका आदशे चरित ( पं० श्रीरिवक्रुमारजी शाख्रीः

व्याकरणाचायः दशनाख्ङ्कार ) ६० २९-श्रीरामके पदपदे नमस्कार [कविता] ३२-धमेके परम आदस्वरूपम भगवान्‌ श्रीराम

ओर उनकी दिनचयो श्रीकमलप्रसादजी

श्रीवास्तव; बी° काम०, सम्पादक “उद्योग

भारती" ) 4 ९. दर

३३-धममके परम आदौ धर्ममूतिं भगवान्‌ श्रीराम ओर उनकी दिनचर्या ( श्रीगोविन्द्‌- प्रसादजी चतुवेदी शाखी, बी० ए०; विद्याभूषण ) ६७ ३४-सत्यधमं ओर उसके आदरं श्रीराम ( श्रीरामप्यारेजी मिश्रः एम्‌ ए० संस्कृत तथा द्िदी); व्या° शा० आचाय, साहित्यरत् ) ६९ ३५-मयादापुरुषोत्तम श्रीराम तथा महात्मा वरसी ( श्रीअभिमन्युजी शमां ) ३६-अदिंसा-धमंकी साधना (श्रीकृष्णदत्तजी भट्ट) ७३ ३७-अहिंसा-धमका स्वरूप ( श्रीखामीजी ओमानन्दतीथंजी ) 4 ७६ ३८-हिसाका अनुमोदक भी हिंसक है [संकटित] ( महदाभारतःअनुशासन° ११५ ३९) ˆ-‡ ७७ ३९-अदिंसा परमो धमं ७<से८० १-८ श्रीहरिप्रसादजी शमौ साहित्यशास्त्री; काव्यतीथं ) इः ७८ २-( श्रीगुखाव चन्दजी वात्सल्य ) ७९ -( श्रीरजेनद्रप्रसादजी जेन ) ८० -अदिंसके गुण ओर मास-मक्षणके दोष [ संकलित | (महाभारत अनुशा० १४५) ८२ १-अ्दिसा-घमेके आद्रा उदाहरण ८४से८६ १-अर्िंसके आदश महिं वरिष्ठ ( सु० ) ८४ २-अर्दिसा-धमेके आदश सेठ सुदगन (सु) ८५ -प्रहादकी विलक्षण असा; पर- {खकातरता ओर श्चमागीकता श्रीमती राधा भारोयिया ) ˆ“ ८६ ४२-वम्दारा बुरा करनेवक्को क्षमा करो [ कविता | ८८ ३-नमो धर्माय महते ( ° श्रीवासुदेवशरणजी अग्रवार एम्‌० ८०५ डी° छिट्‌० ) ८९ ॐ४-मानव-धम ९२-१०२ १-( ओश्रीरामनायजी शमनः ) -* ९२ -( भीगोरीशंकरजी गु ) १.

३-( १० श्रीकुशेश्वरजी सला; काव्यतीभं

व्याकरणाचायं ) ९६ ४-( ज्योतिर्विदमूषण काव्यधुरीण रमलाचारयं

प° श्रीस्वरूपचन्द्रजी शास््री ) 9 ` ५-८( श्रीयुक्त विष्णुदत्तजी पुरोदित ) ˆˆ‡ ९९ ६-( श्रीचन्द्रशेखरदेवजी काव्यतीर्थ;

सादित्यविशारद ) ७-( ख० श्रीकंदुकूरि वीरेशङिगम्‌

प॑तढ--अनु०-श्रीपन्िेदधिः वेकरेद्वल;

‹सादित्यरलः ) १०२

४८५-मानव ओर मानव-धमं श्रीरूक्मांगदजी

ज्वाली व्याकरणाचायं ) १०५ ४६-अधमसे अन्तमं सवेनाश [ संकछिति | ( मनु° | १७४ ) १०६ ४७-मानव-घम या सावंवणिक धर्म ( प्राध्यापक श्रीचन्दूलाङ व° ठकर एम्‌०ए०; काव्यती्थं ) १०७ ४८-जव सत्य-धमकी प्रेरणा दोती ३। ( श्रीक्ृष्णदत्तजी मह ) ˆ ` " "4५. ४९-सत्यकी महिमा [ संकलित |] ( महा० अनुशासन ° ७५ २९ )" ˆ * "क ५०-सत्य-धम॑( श्रीसंतोषचन्द्र॒ सक्सेना एम्‌ ए०; एम्‌० एड्‌० ) _ १९४. ५१-सत्य-धर्मके कुक आदरं उदाहरण ११६से१२३ श-राजा दर्डिचन्द्र ( सु° ) ११६ २-सत्य-रक्चाके च्य प्राण देनेवाटे महाराज दशरथ (सु०) ^ ११७ ३-श्रीगोखले ( सु° ) ˆ“ ११९ ४-श्रीअश्विनीकुमार दत्त ( सु° ) ११९ &-सत्य-धमके आदश मदात्मा सुकरात ( रा० छा०) ११९ सत्यवादी धाटम भक्त श्रीमती राधा भालोय्या ) १२० ७-सत्यप्रिय रघुपतिरसिंह ( सु° ) १२२ <-सत्य-धमेनिष्ठ नन्दा गौ ( सु° ) १२२ ९-बाख्चर बालक ( सु° ) ९२२

५२-नवधा भक्ति तथा परम धर्म ओर उनके

क्षण ~ १२४८१२७

१-( श्रीजयनारायणलालजी, एडवोके ) १२४

२-नवधा भक्ति (श्रीगजानन्दप्रसादजी बङिरा) १२७

५३-धमं ओर भागवतकी मर्मकथा (० महानाम्रत ब्रह्मचारी; एम्‌० ९०, पी एच डी० )

«४-स्वषम ( गी? मगनलाल ग्यास ) -*"

१३९१ १३४

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( ८५- धर्मो धास्यति प्रजाः [ कानी | (श्री ध्चक्रः ) स. ५६-सनातन-घर्मका लक्षण; स्वरूप ओर सावंभोमत्व ( १० श्रीमाधवाचायंजी यासी? शाख्राथंमदारथी ) £ ५७-अधर्मते दुःख ओर धरमसे सुख [ संकट्ित | ( मनु° | ६४) ५८--धर्मका लक्षणः सरूप ओर उसकी परिभाषार्प १४२ १-८ श्रीचारुचन्द्र चद्ोपाध्याय एम्‌० ए० } १४द्‌ २-(पं० श्रीकेलाशनाथजी द्विवेदी, एम्‌०ए०; सादित्याचाय्‌, साहित्यरलन ) १४४ ३-( पं श्रीदरिदासजीः व्या° वेदान्ताचार्य ) १४५ ५९-धर्म ओर सम्प्रदाय ( श्रद्धेय सवामी श्रीचिदा- नन्दजी सरस्वती महाराज ) १४९ ६०्-ध्मं ओर सम्प्रदायकरा अन्तर श्रीसुदशनरसिंहजी ) २५९ ६१-धर्मकरा यथाथ रहस्य क्या दै १८ श्रीकाना खाक घटकः एस° पी० ) १५ ६२-धर्म॑जीवनर्मे प्रतिदिन, प्रतिप व्यवदासी जीवन-पद्धति है ( ° श्रीरामचरणजी महेन्द्रः एम्‌० ए.०; पी-एच्‌० डी° ) ˆ” १५६ ६३- व्यक्तिगत दैनिक जीवनर्मे धमक्रा सूप श्रीरामनिरीश्रणसिहजी एम्‌० ए० काव्यतीथं ) ६४ धर्मकी महिमा [ कविता | ( श्रीराजेन्द्रसिंहजी दान ) १६३ ६५-मागवत-धमं ( राष्रपति-पुरस्क्रत श्रीकृष्णदत्तजी भारद्वाजः एम्‌० ९०; पी-पत्च° डी °» पुराणाचायं ) ०५० 6 ६६-धमं ओर भगवान्‌ [ कविता | १६५ &७-भागवत-धमं -“ १६६ ६८-प्रम भागवतके लक्षण [ कविता | १६७ ९-परमधमं भागवत-धमं ९६८- १६९ १-( श्रीजयरणछोडदासजी (भगतः ) “ˆ १६८ २-( १० श्रीवै्नाथजी ज्ञा आचारय, एम्‌० ८०; सादित्यरत्न ) १६९ ७०-प्राणीका सर्वोपरि धम परमात्मसाक्षाक्तार अथवा भगवदशेन (प° श्रीजानकीनाथजी शमां ) ०6 (2 ७१-परम शरेष्ठ धमं ( छामीजी श्रीकरृष्णानत्द्‌जी महाराज ) *"“ १७९

^\

)

७२- धर्ममय भगवान्‌ श्रीकृष्ण ७३-धर्मके परम आदशंखरूप भगवान्‌ श्रीक्रष्ण ` ओर उनकी दिनचर्यां ( श्रीट््मीकान्तजी त्रिवेदी ) हः 4 ७४-भमगवान्‌ श्रीकृष्णकी धर्मयुक्त दैवी राजनीति ( खर्गीय श्रीलोदूसिंहजी गौतमः पम्‌° ए्‌० ) ००. ७८-ध्म ओर परम धर्म॑ सुर ००८ ७६-प्रस धर्मं ( ° प° श्रीगोपीनाथजी तिवारी एम्‌७ ए्‌०) पी एत्च्‌ डी ) ७७-धर्मो धारयते प्रजाः ( ईो° सुंशीरामजी शमां एम्‌० ए०? पी-एच्‌° डी° डी° िद्‌० ) <-वेदवणित राष्टू-धमं (- श्रीसियारामजी सक्सेना

धप्रवर; एम्‌० ए० साहित्यरतल ) ˆ” १९६ ७९-परस्वापहरण-त्याग या अस्तेय-घमं २०३ ०-भगवपरेमीका जीवन धन्य दै [ कविता ].‡‡ २०५ १-अस्तेय-घर्मके आदर उदाहरण २०६ से २०९ १-अस्तेय-घमके आदश ऋषि शङ्ख-छिखित (सु) २०६ २-अस्तेय तथा त्याग-धर्मके आदश ब्राह्मण ( सु ) ००० ७७ -बुदिया माईकी हककी रोरी (श्रीमती राधा माटोय्या ) + ४-अस्तेय-धर्मकरा आदं-निधैन बाख्क( सु °) २०९ र-धमशासित जीवन + 6 ८३-वणांश्रम-धमं ( श्रीवसन्तक्रमार चद्रोपाध्यायः एम्‌० ए० ) २१२ ८४-वर्णाश्रमकी महामहिमा ( ॐ° श्रीनीरजाकान्त -चौधुरी देवशमां एम्‌ ए०; पी-एच्‌° डी °) एल-एख० रीर ) २२० ८५-मारतीय व्णै-धर्मका स्वरूप ओर महत्व -"‡ २३३ ८६ संतका धमे-आचार [ कविता | २३५ ८७-भारतीय चार आश्रमोके धम ओर पाख्नीय नियम २३६ ८<-सनातन-धरम (१० श्रीदीनानाथजी शमौ शाखी; सारस्रतः विद्यावागीशः विद्यामूषणः विद्यानिधि ) यनः (भ ८९-सदिष्णुता-अर्दिसाके रक्षक देवता [ संकटित ] २४१ ९०-सनातन धर्म॑ दही सावैभोम-धम या मानव-धरम है -*“ २४२ से २४६ १-( श्रीनारायणजी पुरूषोत्तम सागाणी ) ` `“ २४२ २-( भीहन्द्रनीतजी शमो ) ^

१८०

१८५

१८७ १८९ १९२

९९४

९- खनातन धमै दी सावभोम मानव-घम॑दे

( श्रीगंगाघर रुख्जीः बी° ८०, पएएल-एल०

बी°› एडवोकेट `) २५० ,२-ब्रह्मचय्‌-महिमा (प° श्रीजानकीनाथजी शमा ) २५३

-ब्रहमचयं-घमे ओर उसके आदं २५६-२५७ १-( एक गस्य ) 0 २५६

२-( श्रीपरमदहंसजीः श्रीरामक्कुयिया ) २५७ ९४-ब्रह्मचर्य-धमैके आदश उदाहरण २६२ से २६४ १-श्रीहनमानजी ( सु° ) २६२ २-श्रीशुकदेवजी ( सु° ) २६२

३-त्रह्मचय-धरमके आदशं॑उत्तङ्क ( सु° ) २६३ ४-नरहचर्य-धमेके आदश भीष्मपितामह (सु०) २६४ ९५-अपरिग्रह्‌ तथा संतोष-धर्मके आद २६५-२६६ १-महपिं लोमश ( सु° ) २६९्‌ -साध्वी रतिया ( रा० ला० ) २६६ ९६-शोच-धर्मके आदश [ वावा मोकल्पुर ] (सु २६७ ९७-संतोष-धमके आदशं [ महामना मारूवीयजीके पिता ] ( सु) २६८ ९८-संतोष ही परम सुख है [ कविता ] २६८ ९९-संतोष-धमं ( श्रीदरिमोहनखाल्जी श्रीवास्तव एम्‌० एट-एट्‌० बी°> एल्‌ टी° ) २६९ १००-तप-धर्मके आदश २७०-२७१ १-कराशीके दो संत ( खु) २० २-असुर गुडाकेश ( सु° ) २७०

-तप एवं छोकदितका आदश-असुर गय सु° ) २७१

१० १-स्वाध्याय-धर्म श्रीकन्दैयालल्जी लोटा ब्री° ए० ) २७३ १०२-ध्म॑मैरा [ कविता ] ( श्रीखदशनसिंहजी ) २७५

१०३-खाध्याय-धर्मके आदद [ श्रीदेवनाथर्सिंह |]

6 २७६ १०४. ईदवसप्रणिधानके आदं [ संत ठक्राराम |] ( यु ) २७७ ०५-अनित्य ओर दुःखरूप [संकलित | (महाभारत, अनुशासन० १४५ ) ˆ`" २७७ १०द-धृतिक्रा स्वरू २७८ १०७-क्षमाक्रा आदश २७९ से २८४ ५५ १- विष्णु भगवान ओर भ्रगुजी ( श्रीमती राधा भाटोयिया ) २७९ -आहादकी शंमायीर्ता "` 6

#

)

-महारानी द्रोपदी ( सु° ) २८१ ४-क्षमा-ध्मा गाधीजी ( सु 9 ) २८२ ५-क्षमा-घमके आदड महाकवि जयदेव (सु) २८३ ६-क्षमा-धर्मके आदश समर्थं रामदास (सु° ) २८४ ७-ब्राह्मण-गुरुकी क्षमा ( भ्रीराधा भालोयिया ) २८४

१०८-शम मनोनिग्रह )- संयम-पानके आदर्शं [ अजुन | ( सु° ) ०० २८६ १०९-मन्‌-विजयी [ कविता |] २८७

११०-शम ( मनोनिग्रह )-धर्मके आदशं-दो संत २८८-२८९ १- श्रीअविनारीजी महाराज एवं बामन

बाव्रा ( सु° ) २८८ २-मनोनिग्रहके आदशं -- तपस्वी शेरफिन ( रा० खा० ) "^^ 4 ३-मनोनिग्रद-ध्मके आदशं भिक्षु उपगु (सा० छा° ) २८९ १११-दम ( इन्द्रिय-संयम )-धर्मके आदश २९१ से २९३ श-त्राद्मणशरेष्ठ ( सु° ) २९१ २-सेठ सुदरन ( सु° ) २९२ ३-मदाराज छव्रसाठ ( सु° ) -““ २९२ ४-नाम-परायण इन्द्रिय-विजयी भक्त दरिदासजी २९३ ११२-धी-धमम [ कानी |] ( श्रीप्चक्रः ) २९४ ११३ -विद्या-धमं [ कानी ] ( शरीभ्चक्रः ) २९८ ११४-यक्रोध-धर्मके आदरं ३०२ से ३०५

१-एकनाथजी ( श्रीमती राधा भालोयिया ) ३०२

२्-अक्रोधकी परीक्षा (श्रीमती राधा भाटोथ्या ) ३०३ -अक्रोध-धरममे निपुण वाबुदेव( सु° ) ३०४ ४-अक्रोधी सुकरात ˆ“ ३०५ ११५-धर्ममूतिं महं वाल्मीकि ओर उनके रामायणप्रतिपादित धमं (प° श्रीजानकीनाथजी शमा ) २३० १९१६-धर्मप्राण भगवान्‌ व्यासदेव ओर उनके पुराणग्रतिपादित धर्म॑ पं० श्रीजानकौ नाथजी शमा ) २०८ ११७-दिदू-धमके आधार-प्रन्थ ३९१० ११८-खष्टिका प्रथम धमौपदेश--तप ( सु° )ˆˆ‡ ३१६ ११९-सुष्कर्ताका अपनी प्रजाको धममोपदेश ( सु° ) ३१७ १२०-आदं धर्मपार्न २१८ से २२१ १-ध्ममूतिं महाराज दिवोदास ( सु° ) `ˆ“ ३१८ २-शाख्न-श्रद्धाके आदशं श्रीकुमारिक भद्र (ष॒) ३१९

३-त्रतनिष्ठाके आदरं राजा सक्माङ्गद्‌

(खु°) २२० ४-धर्मज्ञ तोता ( सु° ) ३२१ १२१-महाभारतमे धम ईा० श्रीवल्देवजी उपाध्यायः एमू्‌० ए०; सादित्याचायं ) ३२२ १२२-घर्म.पर्चिय प° श्रीजानकीनाथजी शमा ) ३२८ १२३-धर्मका दृष्ट ओर अदृ फल ( यारिक- सम्राट्‌ प० श्रीवेणीरामजी शर्मा, गोड वेदाचा्यै, काव्यती्थं )* * "““ ३३३ १२४८-धमके विविध रूप ३३६ १२५-शरणागत-रक्षण धर्मके आदं ३३९ से ३४२ १-महाराज शिवि ( सु०) ३२३९ २-आशरित-रक्षा-धर्मके आद-युधिष्ठिर (ख०) ५. ३-पतिधर्मके आदर्शं अर्जुन ओर शरणागत- वत्सला सुभद्रा ( सु° ) ^" ४८-शरणागतरक्षण-घर्मके आदरं राणा हमीर (सु०) ˆ" "1 १२६- कठोर वाणीसे समाघात मत करो [ संकलित | ( महाभारतः अनु° १०४ ३१-३२ ) ˆˆ“ ३४३ १२७-सत्य सनातन विदव-घमं ( दासपतित ) ˆˆ* ३४४ १२८-घर्म॑का सत्यस्वरूप ( राजयोगी ईो° स्वामी श्रीबाखदत्तानन्दजी एम्‌० डी ०? एवच्‌° एम्‌° डी° एम्‌० बी° आई° एम्‌ एस्‌° )"* ३४६ १२९-धमं क्या दै (श्रीधनंजयजी भद (सरकः) ३४९ १३०-दम-ध्मकी श्रेष्ठता [ संकलित ] ( महा अनु° ७५।१६-१७ ) ““‡ ६९९ १३१-धरमो रक्षति रक्षितः ( खु° ) -“* ३५२ १३२-काम-क्रोधादिरमे रत छोग भगवान्‌को नदीं जान सकते [ संकलित | ( दोदावली ) “ˆ` ३५२ १२३३-कलियुगका प्रधान धर्म दान (१० श्रीजानकीनाथजी शम ) “२५९ १३४-ध्म ही जीवनका आधार [ कविता | ( श्रीमदावीरप्रसादजी अग्रवाल ) ०० ` १३५-दान-धर्मके आदश `“ ३५५ से ३६० १-दैत्वराज विरोचन ( सु° ) ३५५ २-महादानी दैत्यराज वलि (सु० ) ˆ“ ३५६ ३-महादानी कर्णं ( सु° ) =“. ५८ ४-दान-धर्मकी महिमा ( सु° ) -*“ ३५९

५-दान-धर्मके आद राजा दर्षवधन ( सुर ) [कि ^~ ६-दानक्ीकता-धमैके आदश-- विद्यासागर ( सु° ) `" १३६-दमारा धम ओर शिक्षा ( सादित्यभूषण भीभगवानसिंहजी चन्देर, ध्चन्द्र, ) ˆ ˆ" १२३७-घोर अविद्याः अविद्याः विधा [ कविता ] ` ` १३८-सामान्य-धरम ओर विदोष-धर्म १-प्रेमधर्मकी विशिष्ट सजीव प्रतिमा श्रीगोपाङ्गना २-पितरूमक्त परद्युराम ३-्रातृभक्त लक्ष्मण ४- पतिपरायणा शाण्डिली ( सु° ) १३९- स्वधर्मान्‌ पसि्यिज्य = २-८ प्राचायं श्रीजयनारायणजी मस्ठ्किः एन्‌ ए० [ ह्य ] खर्णपदकःप्रा्तः

२६१ २६३ ३६४से ३६७

२३६५ ३६६ २६७ ३६७ ३६९ से

२७९ २६९

डिप०एड ०? सादि्याचा्, साहिव्याककार) ३७२

३-गीताका चरम र्छोक--छ व्याल्या ( परे०--पूज्यचरण आचाय श्रीराघवा- चार्य॑जी महाराज )

३७८

४-( पं° श्रीखुधाकरजी त्रिवेदी “इन्द्रः )ˆ‡ ३७९ १४०-सामान्य-धर्म॑ ओर विरोष-ध्म॑ तथा

इनके आदं ( श्रीश्रीकान्तशरणजी ) ३८० १४१-वात्सल्य-धम॑( श्रीवद्रीप्रसादजी पंचोलीः

एम्‌० एर पी-एच्‌° डी°) साहित्यरतन ) `ˆ“ ३८५ १४२-आुर-मानव ओर उसकी गति [ संकलित |]

( महाभारतः अनु° १४५ ) ३९४ १४२-श्रीधम॑ तत्व-मीमांसा ( १० श्रीजानकीनाथजी

शमा ) ३९५ ₹४४-आतिथ्य-धर्मके आदश ` ˆ ३९७ से ४०२

१-महिं सुद्रल ( सु° ) “^ ३९७

२-महाराज मयुरभ्वज ( सु° ) ३९८

३-श्रीकृष्णका अतुख्नीय अतिथि-स्कार

(सु°) ००० `

४-दुगादास ( सु° ) ४००

५-आतिथ्यरूप धर्मका फल ( सु° ) ४०१

६-महाराणा प्रताप ओर उनकी कन्या

(सुर ) --" ०२ ७-आतिथ्यध्मीं कपोत ( सु° ) 4२

( ९४५. दया-घचर्भका खसूव 11 ९४६-ममता दी गलयु दै [ संकठ्ित ] ( महाभारतः आश्व १३1 ६-७ ) ८०४ ९४७-दया-घममके आदश्च ८०८ से ४०७ १-द्यामूतिं परोपकारी राजा ४०८ र-दया-घमेी मृतिं महामना माख्वीयजी (खु° „५ ३-राजा भोजके राजकवि ( सु०° ) ४०६ ४-नाग महाशय ४०६ ८-अतब्राहम लिकिन्‌ ` २७७ ९४८-मानवक्रा परम धमं--परोपकार श्रीअगर- चन्दजी नाहटा ) = ९४९- प्रहित सरिस धमै नदिं माई ( श्रीसुरेन्र \ कुमारजी रिष्यः एम्‌० ए०; एम्‌० एड्‌०ः | साहित्यरत्न ) ४११ } १५०-सवेत्र आत्मदशेन ही सत्य धर्म॑ है ( श्रीजगन्नाथ | गस पुरुषोत्तम बुवा महाराज ) 7 ९८ १५१-परोपकार-घर्मके आदरस ४१७ से ५२५ १-महषिं दधीचि ( सु° ) ४१७ र्-गीधराज जायु ( सु° ) ४१८ ३-देवी कुन्ती ( सु° ) ४१८ ४-कोसरराज ( सु° ) ४२० | ५-मदाराज मेषवाहन ( खु° ) ४२० | ६-शिवाजी ओर्‌ व्राह्मण ( सु° ) ४२२ | -ईश्वरचन्दर विद्यासागर ( सु° ) ४२३ ६. ८-कन्नड़ कृष्ण नायर्‌ ( सु° ) ४२४ | | स्मोग (बु) ५२५ | ०-मेडम न्लेवटस्वी ( रा० खा० ) ४२५ | भ्५८स्-परोपकार धम ओर परापकार अधर्म है [कविता] ४२५ | ` १५३-सेवक्र-धर्मके आदं ४२६ से ४३४ [7 वमा) ४२६ 14 र-आदशं सेवाके मतिमान्‌ खर्प श्री | ` हय॒मानूजी (-श्रीहदयशकरजी (गल! ) ४२७

१,

) ° -कन्तव्यनिष्ठ सेवक्र ( सु°) ८३४ भूदेव मुखोपाध्याय (सु०) -"* ४३४ १५४-घम जीवनम उतारनेकी वस्तु है, छल्खि रखनेकी नहीं ˆ“ १५५-मानसमं धमकी परिमा ° श्रीदरिदर्नाथजी हक्क, एम्‌० ए०, डी° लिट्‌ ) (८ १५६-श्रीरामचरितमानसमें धम-तच्व-निरूपण ( वेद्य १० व्यापकजी रामायणी, मानस तचान्वेषरी ) ४२७ १५७-श्ुभकमक्रा शुम ओर अश्युमका अद्युभ फक मिलता हे [ संकलित ] ( महाभारत, अदुशासन० ९६ ) ““ ४२९ १५८-धमं ओर परलोक व्याकरणाचार् पं श्रीरघुवीर सि०-वाचस्पति ) ४४० १५९-जव धम॑-संकट आता है ( सु° ) ४४१ १६०-लक्योन्मुखता दी परम धर्मं ( श्रीराेश्यामजी बकरा? एम्‌० ए० ) ४४६ १६१-आयुवैद्‌ ओर धर्मशास्र प° श्रीदयििक्षजी जोशी? तीथंत्रय ) ^ ४५ १६२-अपनेको सदा धर्मकी कसौटीपर कसता रदे [ कविता | ४४९ १६२-जन्माङ्गसे धमे-विचार व्योतिपाचार्यं भ्रीबररामजी शाखी, एम्‌० ए, साटित्यरतन ) ४५० १६४८ धरम ओर विज्ञान ४८५ से ४६०

१-(प्राप्यापक श्रीदिमांञचरोखर ज्ञाः एम्‌०एु०)

-( भरीचपतक्कमारजी छदा “निर्मल )" "‡ ४५७

२-( मारी श्रीउषावती विव्राठ्करता, गाखीः सादित्यरत्न ) ४५९ ४-( श्रीयुत डी° एस° जाया ) ४६० १६५-निर्छभता-धर्मके आदर ४६२ से ४६८ १-दलाधार ( सु ) ४६२ र्-रकरा्वोकरा ( सुर ) ४६२ रे-नामदेव ( सु° ) ४६३ ४-श्रीसनातन गोखामी सु° ) ५-संत तुक्राराम ( सु° ) ४६५

&-अरोभ-धरमकरा आदं श्रावस्ती-नरेदा ओर ब्राह्मण-कुमार ( सु° ) ४६५

१६६-धन अनर्थं तथा दुःखक्रा मूल | संकलित | (महामारतः अवशासन० १४५ ) "““ , ५६६

४६९७

१६८-गो-सेवा-ध्म॑ ओर उसके आदं ( १० श्रीमुक्रुन्दपतिजी ,. त्रिपाठी एम्‌ एर रत्नमाटीय ) 4

१६९-गो-सेवाका

सु 9 १७०-गौ लक्ष्मीकी} जड़ ओर सर्व॑पापनारिनी दै [ संकलित ] ( महामारतः अनुशासन ५१।

आदश--मदाराज विक्रमादित्य

२८० २३२ ) १७१-परमा्थं [ कदानी ] ( श्रीकृष्णगोपालजी माथुर ) १७२-श्रद्धा.विश्वास-धर्मके आदं --जाजं मूटर (रा० ला)

१७३-धर्मकरो जीवनचर्यामिं टानेसे दी ख-परहित दै (श्रीइनद्रलालजी शाखी, जेन, °विच्याख्कारः)" `"

१७४-धमौत्मा पुरुष क्या करे [ संकलित |

१७५-धमे ओर मनोविज्ञान ( १० श्रीखालजी मजी शुकः एम्‌ ए० )

१७६-धमेः शब्द्का दु रूपयोग ( सहामदिम ङां° श्रीसम्पूरणानन्दजीः रान्यपाट, राजान ) ` ` "

१७७-(अर्थः नामक अनर्थः [ संकलित | < श्रीमदूमागवत ११। २३ १६-१९ )

१७८-धर्म ओर सेक्ुरिल्म श्रीरामङ्ृष्णप्रसादजी बी° ए० बी° एट्‌० )

१७९ धर्मम शासनका हस्तक्षेप अवाञ्छनीय ( १० श्रीराजारामजी शास्री ) ध;

१८०-धम ओर समाजवाद ( वैच श्रीरुरुदत्तजी एम्‌० एस्‌-सी° आयुवें द्‌-वाचस्पति )

१८ १-महाकवि भारविके

काव्यम राजधमं ( श्रीयुगकरसिंहजी खीची; एम्‌ ए० बार-एर-लोः विघयावारिधि )

१८२-ध्म ओर रणनीति श्रीविख्वनाथ केराव कुलकर्णी हजरदारकर )

१८३-धर्म॑ ओर दण्डनीति (डा के° सीर वरदाचारी, एम्‌° ए०? पी-एच्‌० डी° ). ` "

१८४-मनुष्यको क्रितना चादिये [ संकलित | ( महाभारतः, अनु° १४५ )

१८५-धर्म॑ ओर राजनीति १-(आचार् श्रीविदवप्रकाशजी दीक्षित “बटुकः ) २-८ श्रीमागवतनारायणजी भागव; संसद्‌-

सदस्य राजसभा ) £

१८६-प्रमधर्मरूपम-सोन्दय-माधुर्यसिन्धु

श्रीकृष्ण [| कविता |

ख-

भगवान्‌.

(

४६९

४७२

र्ट ४७३ ४७७

४७८ ४७९

४८० ४८३ ४८५ ४८६ ४८७

४८९

४९८ ५०१ ५०४ ५०४ ५०६

०५८

०९

कर)

१८७-धर्मयुद्ध एम्‌ एण )

१८८-शरीरमें अहं ता-ममता करनेवालेको नरककी प्रात्नि [ संकलित ] ( नारदपखिराजको पनिषद्‌ ४६-४८ )

१८९-रणभूमिमं वीरका धमं ओर उसका फल [ संकलित | ( महाभारतः अनुशासन° १४५ )

१९०-राजक्रा धमं ओर उसक्रा [ संकलित | ( महाभारतः अनुशासन १४५ )

१९१-वदी \ हमारा धर्म॑ सनातन [ कविता |]

( श्रीरिवानन्दजी

शर्मा?

( श्री्यामजी वमा, एम्‌ एस्‌-सी° एम्‌ ए० (तरय); सादित्यरत्नः

आयुवंदरन )

१९२-आर्यधर्म ओर संस्कृतिके प्रति गणराच्य- संविधानकी दृष्टि ( श्रीकस्तूरभरजी बोटिया )

१९२-धर्महीन मनुष्य [ कविता |

१९४-मोतिकवाद्‌ ओंर ध्यात्मवाद्‌ श्रीगोपीचन्दजी धाड़ीवाकः बी° एस्‌-सी ०) एट्‌-एल्‌° बी° ) 4

१९५ -धमेका मसं [ कविता | श्रीयुगलसिंदजी खीचीः एम्‌० ए. बार्‌- एट्‌-ख )

१९६-धमंसंस्थापना्थाय ( श्रीअशोकजी कौशिक )

१९७-मोक्षका अधिकारी [ संकलित ] ( नारद- पखिाजकोपनिषद्‌ ४५ )

१९८-संतौका व्यापक धम ( श्रीत्रिलोकीनारायणजी दीक्षितः एम्‌० ए; पी-ए्च्‌ू० डी°) डी° लिट्‌० म)

१९९-संतोधते परम सुख तथा उन्नति, असंतोषसे दुःख तथा पतन [ संकठ्िति] ( श्रीमदूभाग° ७। १५ १६, १७) २० २१) =“

२००-देशभक्ति-धमं श्रीमधुसूदनजी बाजवेयी ) ००५ ००५

२०१-देशभक्तकी पहचान [ कविता |

२०२-धर्मपरम्परा ( वैय श्रीकन्दैयालालजी मेड; व्याकरणायुवंदाचायं )

२०२-विवेक-धर्म॑[ कविता ] श्रीामविशा्जी शमौ “विशालः साहित्यरतन )

२०४-भारतीय इतिहास ओर धम ( पद्मभूषण डा श्रीसू्थनारायणजी व्यासः डी° लि्‌ )

२०५-धममहिमा [ कविता ] ( श्रीभवदेवजी

ज्ञाः एम्‌० ए० [द्य] )

५१३

८५ १४

५१५९.

५१७ ५२६

५२७

५२३१ ५२२

५६३३

५२४

८९ ९४

५.४२ +त 01

८५४।

५४७

५४९

९०

( )

न्तं ८५ २०६-अन्तखखता दी धमकी कसौटी है ( साघ्वी श्रीकनकप्रभाजी ) [ प्रेपकर--श्रीकमलेशजी

चतवैदी ५५१ २०७-गुरु-घमके आदरं महिं (खु०) ``: ५५२ २०८-दमारे पूवज ओर उनके धमे [ कविता |

( श्रीगःम्थैमुनि प्दिजन्द्र ) ५५३ २० ९-शिष्य-घमका आदर ९५५५६ °

१- कौत्स ओर आदरं दाता रघु (सु° ) ५५५

२-आरूणि (सु°) ५५६

२-उपमन्यु ( सुर ) --* ५५७

`४-एकरुच्य (खुर) ५५८

८-श्रीक्रष्ण-सुदामा ~“ ६५९

&-छत्रपति शिवाजी ( सु° ) ५५९

-अम्बादास कल्याण ( सु° ) ५६० | २१०-ध्धरम स्वै प्रतिष्ठितम्‌ ( डा° ज° नरास दाख, विद्ाङ्कार, सादित्यरत्नः बदान्त-

भूषणः आदु ददिरोमणि? रिसचं स्र ) ५६२

२११-यतो बवमस्ततो जयः ५६ २-५६५

| ५६३

१-( श्रीगोपालराब जालनापुरकर महासा ) २-(रीवहछमदासजी वि्नानी श्रजेश सादित्यरल) ५६५ २१२- मक्ता कौन होता है [ संकलित ] (महाभारतः

आश्व १९ 1 २--४ ) ५६६ २१३-घम॑ ओर कामोपभोग ( आचायै १० श्रीरिवक्रुमारजी शास्त्री व्याक्ररणाचायः दर्शनाख्कार ) " ०० +, २९५४ कामना ओर मानवनधमं ( श्रीपरमानन्दजी ) ०९२ २१५-सल्य-घर्मं (१० श्रीदेवदत्तजी मिश्र कार च्या सा० स्मर तीथं ) ५७१ २१६-परम धसक्रा परमाथ ( प° श्रीसुरजचन्द्‌ (सत्यप्रेमीः [ डगीजी | ) -** ५७३ २१७-वृष्णा-व्याग-घमं, [ संकटित ] ( महाभारतः अनुदासन० ९३ ४० ४९ ४३) १४६५ ) किः ° ^ शु २१८-सर्वमूतदितेषिता-धरमके आदय ˆ` = ^५५-५७७ १-राजा रन्तिदेव (सुर) ५७५ २-मनकोजी बोधल (षु), द-दागामुची ( खुर ) “ˆ - ५७७ ८७८-५७९. महाराज अश्वपति ( ख° ) ५७८ अरोक ( सु० ) "भः मूलराज 9)

४-शासकधरमके आदर्चं महाराज.चन्द्रापीड (सु °) ५७९

२२०-शरेष् राजका धर्म॑ [ कविता | ५८० २२१-न्याय-धर्मके आदरं ५८ १-५८२ १-क्रासी-नरेद्य ( सु° ) ५८१ २-राव रतनसिंह ( श्रीरिवकरुमारजी गोयल ) ५८२ २२२-गृदश्व-धर्म-विचार ( विन्यामूप्रण ॒श्रीराम- क्ष्ण अनंत भङ् काशीकर ) "५ २२द-भगवत्करपाप्राप्त खद [ कविता | ५८५ २२४-भारतीय गदस्थीमे धर्मपाटन ( आचाय श्री वरखरामजी शाखी; एम्‌० ए०; सखराहिव्यरत्न ) ५८६ २२५-धमों रक्षति रक्षितः [ कविता ] ( १० श्री- नन्दक्रिस्तोरजी ज्ञा ) १“ १६७ २२६-चारो वेकि धम ( ब्रह्मलीन परमहंस परित्राजकाचा्यं॒श्रीश्री १००८ श्रीस्वामी योगेश्वरानन्दजी सरसखतीः; प्रेषक श्रीसूरजमलक्जी ईसरका ) ५८९ २२७- चायो वर्णोका समान महत्व [ कविता | ५८९ २२८-्राह्यणधममं एवं उसके आदा 8 ( १० श्रीश्रीधरजी द्विवेदः व्याकरणाचायैः सादिव्यशास््री, "विशारदः ) ५९० २२९-त्राह्मण-धर्म्रे आदरं """ ५९१-५९२्‌ १-महापण्डित कैयट ( खु° ) ५९१ २-श्रीरामनाथ तकै-सिद्धान्त ( सु° ) ५९२ २२३०-त्राह्मण-धमं [ कविता | ५९२

२३९-श्षत्रिय-भ्म ( पं° श्रीगोरीशंकस्जी भद्राचायं ) ५९३

२३ र-कषत्रियधर्मके आदश [भीष्मपितामह] (सु° ) ५९६ २३३-वेश्य-धमं ( श्रप्रहूलद्रायजी व्यास ) ˆ" ५९७ २३४ वेश्य-धर्मके आदशं [ तलाधार ]८ खु° ) ˆ * ५९९ २३५-आद वेश्य [ कविता ] ५९९ २३६-रद्र-धमं गोखामी पं अवधनारायणजी

(भारती ) < ˆ“ ६००

२३७-ए्दलक्ष्मीयहे गदे | (श्रीश्रीरामनाथजी सुमनः) ६०१ २३८-सतीधमं ( रानी श्रीसज्जनक्कुमारीजी वरती ) ६०६ २३९-युग-धरमके अनुसार नारी-धर्म

( श्रीदरिमोदनलाल्जी श्रीवास्तव; एम्‌°

ए०; ए््‌एट्‌० ब्री°> एदश्टी° ) ६०७ २४० भारतीय नरनारीका सुखमय दस्य [कविता] ६०९ २४१-नारी-धरम ओर उसके आदश ६१०-६१२

१-( श्रीमोदनलाख्जी चतरः बी ए०, वी°

एड्‌०; सादिव्यरत्न ) ६१० २-(सादित्यवाचस्पति पं श्रीमथुरानाथजी समा श्रोत्रिय) `“ ~“ ६१२

~ ~ ---~

(ध 5

(८ ^.)

२४२-पति-धम [ कविता | ६१६ २४२-नारी-धर्म बहन श्रीशसित्रालाजी व्व्िदारीः 'विशारद्‌ः ) 1 ६१७ २४४-सपत्नी-धरं ६१८ २४५-माताके धर्मकी आदर्शभूता--परतिव्रता मदालसा ( सु° ) ६२० २४६- प्रथम सती महारानी दारानी अचि (सुर ६२१ २४७-नारी-धर्मकी आदशभूता सतियो ६२२-६२९

१-भगवती सती (सु° ) ६२२ ₹-भगवती उमा (सु) ६२२ २-सती अनसूया ( ख० ) ६२३ ४-सती सावित्री ( सु ) ६२५ ५-भगवती श्रीजानकीजी ( सु° ) ६२६ -सती दममन्ती (सु°) ६२७ २४८-विलक्षण पल्नी-घरम [ भामती देवी | ( सु ) ६२९ २४९-पत्नी-धमंकी आदशमूता श्रीमती

वासुकी (सु°) `" “*“ ६३० २५०-कुक सती देविर्यो-- ` * " ६२०-६३२ १-सती कुमारी सूर्यं तथा परमा (शि° दु° ) ६२०

२-सती पञ्चिनी (शि० द°) ६३१ ३-सती तारा (शिण्दु०) ६३२ २५१- कुक आदश दिदू-नार्यो ˆ `" ६३२-६३८ १-सती चंचरकुमारी (शिण द°) ६३३ २-सती लाजवंती (दि° दु०) ६२४ ३-पतित्रता मयणल्लदेवी (सु०) ६३५ ४--साध्वी कान्तिमती (सु) ६३६

५-सती बासंती ( शि० दु° ) ६२७ ६-सती व्राह्यणपत्नीका प्रभाव ( शि° दु° ) ६३७ ७-सती रामरखीका प्राणोत्सगं

( श्रीशिवक्रुमारजी गोयल; पत्रकार ) ६३८ २५२-अदुघुत सतीत (खर ) ६२९ २५२- पतिप्राणा देविर्या “ध ६४०६२

१-पतिप्राणा विप्रपत्नी (सु°) ६४०

२-पतिप्राणा रानी पिङ्गला ( खु° ) ६४१ २-पतिप्राणा जयदेव-पत्नी ( शि० दु° )ˆ‡ ६४२ २५४- पतिप्राणा सतियोकी जय [ कविता |] ६४२ २५५-नारीधरमकी आदरे--सिरिमा ( सु° ) ६४३ २५६-धर्मके सूय--श्रीकृष्ण-कृपाप्रा्ठ = भीष्म- पितामह ००५ 3 5.0 ६४८४ २५७-आदसं मित्र-धर्मकरा निरूपण ( कविभूषण 'जगदीशः सादित्यरत्न ) ६४५

२५८-मिच्-धर्मके विलक्षण आद

६४६- ६५० १-सगवान्‌ श्रीक्रप्ण +

६४६

२-पित्र-धर्मके आदरं महारथी कणं ( सु° ) ६४७ -राजधमाीकरा विलक्षण मिच्र-धमं &४८ -मेत्री-धमंका आदश हंसश्रेष्ठ

सुमुख (सु° ) ^. ८-भेत्री-धरमके आदश डेमन ओर

पीथियस ( सु° ) 2 ६-मैत्री-धर्मके आद््य-रोजर ओर

एण्टोनिओ ( सु° ) †"“ ००० ६९ २५९-पुतरधर्म ओर "उसके आद ( आचायं श्रीवलयमजी बासनी; एम्‌ ए०)

सादिव्यसत्न ) “< =^ ^ ६९

२६०--पुच-धर्मके आदं 5 ६५२-६५८

१-विष्णुरामां ( खु° ) ६५३

२-पित्रभक्त सोममा ( सु° )

३-पितृरसेवी ग्सुकरमा ( सु° ) ६५४

पुत्र-धरमके आदय पुण्डरीक ( सु०° )"““ ६५५

५-पुच-धर्मके आदौ ्रवणकुमार( सु° )"ˆ* ६५६

६्-पितृभक्त देवव्रत भीष्म ( सु° ) ६५७

७-आद्द पुत्र सनातन ( सु° ) ६५८

८-मावभक्तिके आद््च॑वाल्क रामसिंह

(शि०दु°) ६५८ २६१- धर्मशील सुपु [ कविता | ६५९ २६२-कवि ओर ठेखकका धमं ६६ ०-६६४

१-( आचाय श्रीविश्वनाथजी पाठक ) ६६०

२-( श्री एन° कनकराज एेयर ) ६६२

२-८ रिक्ा-विभाग-अग्रणीः साध्विश्री-

मंज॒लाजी ) ००० ००० ६६३

४८-( श्रीदरिकप्णदासजी गुक्च “हरि ) दिद

२६२-आदस निर्क कवि--श्रीपति

श्रीशिवकरुमारजी गोयल ) ६६६

२६४-धर्मकी बल्विदीपर ( भक्त श्रीरामररणदासजी ) ६६७ २६५-सदाचार-धम॑[ संकलित `] ( महाभारतः

अनुशासन° १०४ ६९ ) "** ६६८ २६६-्रातृ-भमके आदश = 38 १-त्यागमूरतिं श्रीभरतजी (सु) "*“ ६६९ २-धमराज जुधिष्ठिर ( सु° ) ६६९ २६७-पुरोदित-घर्मके आदद सु° ) ६७० २६८-धम॑ ओर महविद्या डा° श्रीनीलकण्ड पुरुषोत्तम जोशी ). ६७१

२६९-धमे ओर खान-पान ( श्रीरामचन्द्रजी उपाध्याय (आयं मुसाफिर, ) २७०-छद्ध आदार [ कविता ] २७१-पतिधमे ( श्रीमहेदरपरतापजी पाठक ) २७२-गुखुधमं ओर आदश ( श्रीरेवानन्दजी मोड़, एम्‌ एः व्या° सा० आचार्यं, साहित्यरत्न; काव्यतीथं आदि ) २७२३-धमे [कविता] (पाण्डेय पैशश्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री "रामः, सादित्याचायं ) २७४-घम ओर प्रेम ( श्रीनन्ददुलालजी ब्रह्मचारी

८भक्ति-वेभव, ) २७५-अनन्य शरणागति-घमै ( स्वामीजी श्रीररेगीरी- शरणदेवाचार्य॑जी

साहित्य वेदान्ताचार्य, काव्यतीथ, मीमांसा-शाख्री ) २७६-एक परमात्माको देखना ही वास्तविक धर्म॑

( ब्रह्मस्वरूपा संन्यासिनी ) 4.

बहुरे चित्र -धर्मराज

२-धर्मरक्षक अनन्त शौर्य-वीरयःसिन्धु भगवान्‌ श्रीकृष्ण

३-भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनुपम उदारता

«--धर्मसखरूप अनन्त ॒शोर्यःवीयं-सिन्धु भगवान्‌

श्रीराम

-त्रेम-ध्म-रूप सौन्दथे-माधुरय-सिन्धु भगवान्‌ श्रीराम

६- महर्षिं वाद्मीकि ओर महि वेदव्यास

-दुर्बासाके सापसे धर्मके तीन रूप--विदुरः

युधिष्ठिरः चाण्डाक

८-भगवानक्ता आबाहन ` " "

९-धर्मरूप धर्मराज

१०-चर्मरक्षक यमराज ११-त्रेमधरमरूप सौन्द्य-माधुयं-सिन्धु भगवान्‌

श्रीकृष्ण १२-धर्मके सूर्यं श्रीभीष्मपितामहके समीप शरीृष्ण

युधिष्टिर

<+ )

२७७-धमं ( श्री जी° आर० जोशयर, एभू० ए०;

देऽ एफ०-आर० ई० एस्‌० महोदय ) ६८६ ६७५ २७८-अधमेरूप आशघुनिक ध्मसे सव॑ना (खामीजी ६७६ श्रीजयरामदेवजी महाराज ) ६९१ २७९ विश्वास-धर्म--भगवान्‌करा प्रत्येक विधान मङ्गलमय < ६९४ | &७८ २८० -प्रभुकर प्रत्येक विधान मङ्गलमय [ कविता ] ६९४ | २८ १-परहित-धमं ६९५ ६८० २८२-परहितक्रारीके व्यि कु मी दुर्लभ नदीं [ कविता | ६९५ ६८१ २८ २-सवच मगवदशन-धमं ` ` " ६९६ २८४-स्वत्र भगवदर्शन [ कविता ] ६९७ २८५-घमंपर स्वामी विवेकानन्दके कुछ विचार ६८४ (सं° श्रीमुन्नाललजी माल्वीय (भरतः, एम्‌ काम०) ०५ ६८६ २८६-क्षमा-प्रार्थना ९९ मी (के चित्र-मूची १४-भ्रातृधरमम-- धमराज युधिष्ठिर ओर यक्ष-संवाद्‌ ६६९ मुखधृरष् दोरंगा चित्र १-रामो विग्रहवान्‌ धर्मः `" * ऊपरी मुखप सादा ४८ १-आदशं शिष्य ५५७ (१) आरुणि ६१ ( २) उपमन्यु (३ ) श्रीकृष्ण-सुदामा १२८ (४ ) एकर्व्य ३०८ २-पञ्च-पतित्रतारिरोमणि ~ (१) सीता २३९१ (२) सती ३६५ (३ ) अनसूया ४४८ ( ) दमयन्ती ४४८ ( ) साविच्री २-आदशं मित्र ६४८ ५०९ ( १) श्रीक्ष्ण-कणं (२) कन्ती-कणं ८३ ) भीष्मपितामह-कर्णं ६६९ ४-पितुभक्त भीष्मकी विलक्षण प्रतिज्ञा ६५७

द-पराठधर्म--श्म जर भरत

रेखाचि् महिं वरिष्ठद्वारा विश्वामित्रके प्रति व्रहर्षि- पदकी मान्यता ६५ २--अदिंसक सेठ सुदर्खनद्वाय अजुनमाटीको श्रमण महावीरके समीप चल्नेका प्रेरणा-दान ३-प्रहादद्वारा मृत गुरुपुर्रो--पुरोदितोको जीवनदान देनेके ल्यि भगवानूसे विनीत प्राथ॑ना ४-रमरानभूमिमे धम॑सजक्रा रोदितको जीवित करना तथा हरि्न्द्रको अपने चाण्डाररूप धारण करलनेकी वात वताना `“ राज द्शरथकी केकेयीके वरदानकी स्वीकृतिसे व्याकुर्ता तथा केकेयीका रामे अपने वरदानकी वात कहना ६-गुरुजीके सदोत्सवसे लोरकर सत्यवादी घास भक्तका रजके समक्न उपस्थित होना" * " ७-सत्यप्रिय रघुपतििंहको प्रधान, {सेनापतिका यक्त करना शः ८-सत्य-धर्मनिष्ठ नन्दा मको सिंहद्वार अभयदान तथा धर्मराजका प्रकट होकर उसे बछडेके साथ स्व्गकी अधिक्रारिणी बताना ऋषि छिखितकी राजको दण्ड-विधानके पालनी सीख १०-अस्तेय तथा स्याग-धर्मके आदश ब्ाह्यणका अपने उत्तरीयमें भस्म बाधकरर चर्ना तथा ब्राह्मुहूतम राजका उसकी चरण-बन्दना करना ओर पूना `ˆ" ११-बुदियामाईकी राजासे हककी रोटीके सम्बन्धे स्पष्टवादिता ‰& १२-रात्रिम श्रीसीताजीकी खोजके व्यि ल्ङ्कामे प्रवेश करनेपर राक्षसौके अन्तःपुरकी चियोके देका बरह्मचारी हनुमानूजीकी द्टिम शवके समान दीख पड़ना ५६ १३-श्रीशुकदेवजीकी खोज्मे व्यासजीका अपने- आपको आते देखकर सखग॑की देवियेंद्रारा शीप्रतापूर्वक व्र धारण क्रिये जानेपर आश्चयं प्रकट करना तथा उनसे कारण पूना "““ १४-श्रीभीष्मपितामहका अपनी आजीवन ब्रह्मचारी रटनेकी प्रतिज्ञाके कारण अम्बाको अस्वीकार करना °

( १३)

८५

८८

१२३

२०६

२०७

२०८

२६२

२६३

२६४

१५-मह्पिं छोमराकाश्रीनारदजीके स्मरण करनेपर इन्द्रके समश्च आना तथा उन्द अपखिरहकी सीख देना 0०6 6.59

१६-श्रीनारायणका गुडकेशकी प्रार्थना सखीकार करना तथा अपने चक्रसे उसे देहमुक्त करना

१७-श्रीनारायणका गयासुरके विभिन्न अङ्गोपर देवताओंको स्थापित करना तथा उसके हृदयदेशपर स्वयं गदा लेकर खड़ा होना ओर गयासुरकी वरदान-याचना ९५५

१८-भ्रगुजीका भगवान्‌ विष्णुके वक्षःखल्पर खूव जोरसे एक लात मारना ओर उनका महर्षिके चरण अपने कखमलेम लेकर सहटाना

१९-श्षमाशषीक प्रह्ादकी प्राथनापर प्रसन्न होकर भगवान्‌ दरसिंहका उसके पिता दिरण्यकरिपुको सद्गति प्रदान करना

२०-्रौपदीका अपने पचि पुर्रोौके हत्यारे अश्वत्थासाके प्रति द्या प्रकट कसना तथा उसे चुड़वा देना

२१-महाकवि जयदेबके अपराधी ब्राह्मणवेषधारी डाकुओके पापसते प्रथ्वीका फट जाना तथा उसमे उनका समा जाना एलः

२२-समर्थं रामदासका उन्द कोडेसे पीनेवाठे गन्नेबाटेको रिवाजीसे दण्डके बदलेमं गन्नेका खेत पुरस्कारमं दिखाना `“ ५:

२३-बाह्मणगुरुका अपने प्रतिं अपमान करनेवाले शूद्र रि्यको शिवजीके कठोर शापसे मुक्त करनेके स्यि उन्दी ( शिवजी ) से प्राथना करना तथा शापका मङ्गख्मय वरदानके रूपम बदल जाना

२४-त्राह्मणकी गार्योकरो दस्युते वचानेके चयि

अ्जुनका द्रौपदीके साथ वेठे हुए युधिष्िरके कक्षे प्रवेदा कर गाण्डीव धनुष केकर नियमभङ्ग करना तथा गायको बचानेका कार्य पूरा कर देशत्यागकी तैयारी करना ओर धर्मराजसे विदा मगना २५-खर्गकी सवश्रेष्ठ अप्सराका रात्रिम अकेली अञुनके निवासपर पर्हचना तथा अञनका उसे माता ककर प्रणाम करना रु

२६६

२७१

२७२

२७९

२८१

२८२९

२८२

२८४

२८५

२८६

२८७

रद्-अशूणास्वद्‌ भ्रामके ब्राह्यणशरषठका वरूथिनी अप्सराको फयकारना -- २9 -भड खददनके शीर चदाये जाते समय टीका सिंासनर्सै बद्‌ जाना ०५ < महाराज छचसाख्का पुरक कामना करनेवाली छरमयी कामपरायणा स््ीके ल्थि अपने- आपको ही उसका पुच स्वीकार करना २९-इन्दरियविजयी भक्त दरिदासका वेख्याको महान्‌ संयमी ओर भक्तिमती बना देना -- ` ३०-ब्राह्मणकुमारको ज्योतिर्मय सूर्य॑मण्डलका प्रत्यक्ष दन १-कादमीरनरेदाको वास्तविक विद्वानकी प्रातिः ` ` ३२-यवनकरा थककर ओर रज्ञित दोकर एकनाथ दाराजके विलक्षण महात्मापनकी स्तुति करना --~ -= ~ ३२-जिज्ञास् दिष्यका भंगीद्रारा कूडेसे भरी टोकरी उठाकर सिरपर उड़खनेपर अक्रोध- पूलैक उपकार मानना ३४-अपनी पती ककशा जेन थिपीद्रारा अपने प्रति दुव्य॑बहार क्रिये जानेपर भी मदात्मा सुकरातका अक्रोध -सष्टिकिताका अपनी प्रजाको धर्मोपदेश २६-राजा दिवोदासके सामने भगवान्‌ विष्णुका प्रकट दोना ३७-आचा्यै शंकरा आचाय कुमारिर्करो प्रयागराजमें रिवेणी-तयपर भूसीके देम अग्नि रगाकर ब्रैटे देखना ३८-त्रतमिष्ठ॒ राजा स्क्माङ्गदका अपने पुर धर्माङ्गदके वधके चस्य उद्यत दोना, रानी संध्यावटीढारया उसक्रा समथन तथा भगवान्‌ नारायणक्रा प्रकट दोना इ९-छद्य-कपोत-अग्निकी ठलना्म राजा रिविका लदककर स्वयं पट्डेपर चद्‌ जाना ४० -पतिधर्मपरायणा सखभद्राकरा गन्धव चिचसेनसे उसका दुःख दूर करनेकी प्रतिज्ञा करस्ना _ `` ` %-त्ाखणवेषवाले अभ्यागत इन्द्रम कनेर दैत्यराज विरोचनक्रा खङ्गसे अपना सिर काटकर दूसरे दाथसेउनकी ओर बरदा देना वामनक्रा बलिके मस्तक्रपर अपना

००५

(८ ४. %)

,-९। 9 ५०

२०५ ३१७

३१९

२२०

६१)

३५७

२५९

४४- महिं दुर्वांसाकरा महर्षिं मुद्गल्द्वारा अन्न- ग्रहणके ल्य की गयी प्रार्थना स्वीकार करना

,४५-राजा मयूरध्वजका मस्तक उनकी पत्नी ओर पुच्रद्रारा आरेते चीरा जाना तथा ब्राह्मण- वेषधारी श्रीकृष्ण ओर उन्दीके रिष्यरूपमे धनेजयकरा इस दश्यक्रो देखना ओँर अजुनकी भक्तिका गवं नष्ट दोना

४६-आतिथ्यधमीं मील्करा नगरपेटके पुत्रके सूपं जन्म ठेना तथा च्योति्विंद्‌ वररुचिका उसे

दिखल्कर राजा सातवाहनकरो चिन्तामुक्त

लः 2 =

४८७-महामना माटवीयजीका घावसे पीडित कुन्तेको द्वा ख्गाना

४८-नाग मदारशयका मजदूरौको धूपर्म जरते देखकर छता तानकर छप्परपर स्वयं खड़े हो जाना धः

९- महर्षिं दधीचिका समाधि ठगाकर बैठ जाना तथा योगके द्वारा प्राणोत्सर्गं करना

५०-एकचक्रा नगरी कुन्तीका अपने पुत्र भीमसेनको राक्षसक्रा मोजन च्कर मेजनेकी बात कटकर ब्राह्मण-परिवारको आश्वासन देना ००० 60

५१-कोसख्राजक्रा काशिराजकी सभार्मे स्यं आक्र अपने पुक्रडे जानेके स्यि घोषित सों खर्ण-सुद्राओंका पुरस्कार पथिको देनेका आग्रह करना तथा उनकी परोपकार निष्ठासे प्रभावित दोकर काशिराजका उन्हं सिंहासन समर्पित करना < ५२-छोकपार वरुणद्रारा परीक्षा ५; ५२-छच्रपति शिवाजीके छ्य अपने आश्रयदाता. ब्राह्मणकी दस्द्रिताक्रा असह्य दो उना तथा अपने अज्ञातवासकी बात प्रकट कर पुरस्कार- स्वरूप उस ब्राह्मणको दो हजार अशर्पर्यो देनेके चि सूव्रेदारके नाम प्र छिखिकर देना ५४-ठलखाधारका घन टेनेकी वातपर दृट्‌ रहना ५५-रवकाजीका अपने पति रकाद्वारा मुदरमे भरी थठीको धूर्ते ठकते देखकर दस पड्ना -““

घवाहनकी धर्म

२३९७

४०२

४०६

४०७

४१७

४१९

४२९१

४२२ ४६२९

४६२

५६-त्राह्यणका सनातनसे पारससे भी अपकर मूल्यवान्‌ वस्तु प्रदान करनेकी प्रार्थना करना ५७-अभिरूपर कपिख्का श्रावस्तीनरेशका सिंहासन अस्वीक्रार कर ॒त्ृष्णासपिंणीसे अपना पीछा हुडाना ५८-मदपिं रुका निदाधरको तच्चज्ञानक्रा उपदेश ५९-गुरुदेवकी पीडके उपचारे लिये छवपति िवाजीददारा सिंहनीका दूध दुहा जाना ६०-गुख-आनज्ञाकारी अभ्वादासका वरक्षपर्‌ चद्करर कुर्णैपर छटकती हई साखाको काटना ६१-सप्राट्‌ अशोककी मगध प्रान्तीय प्रशासकके चयि स्शरष्ठ॒ शासक दोनेके पुरस्कारी घ्रोपणा करना + ६२-राजकरुमार मूटयाजका अपने पिता राजा भीमदेवसे (जरा अकाल पडेगा; वराके करषकेसि कर नदीं लिया जायगा की घ्रोप्रणाका पुरस्कार ्मोगना ४५ ६३-सदाराज चन्द्रापीड चमारसे उसकी श्चोपड़ीपर्‌ मूमिदान मोग रहे दै ६४-निर्धनोके श्चोप जल्वा देनेके अपराधमें काशीनरेशने अपनी रानीके वख्रामूषण उतरवाकर उसे फटे वस्र पहना दिये ६५-राजाद्वारा भूमिका दानपत्र दिये जानेसे रुष्ट होकर परम विरक्त मदापण्डित केयय्जी उसक्रा राच्य छोडकर जनेको प्रस्तुत हो रहे है “~ ६६-माता कौसल्याका दनुमान्‌जीके द्वारा पुत्र रामके पास संदेश सिजवाना कि भरमोकी छाज बचानेके खयि विना टष्ष्पणके तुम अयोध्या मत खोटनाः तथा माता घुमित्राका भरतक्री द्यनीय दशका संदेद्या मेजक्र रामसे लक्ष्मणके व्रिना अकेले अयोध्या छोटनेकी प्रार्थना करना ६७-पतित्रता मदालसाक्रा अपने पुत्रको ठोरी देते हए गन--प्पुत्रः तुम शद्ध होः ज्ञानखरूप दो, निम॑छ दो मोहनिद्राका त्याग करो |› & = ६८-पण्डित श्रीवाचस्पति मिश्च तथा उनकी धर्म- पत्ती भामतीका विलक्षण गृदखधरम ६९राजमाता उदयमतीका अपने पुत्र कर्णके

६१९

६२०

६९९

१५६ )

पतिव्रता सयगह्छदेवीको अस्वीकार करनेपर स्वयं चितार्म भस्म दो जानेकी चेतावनी देना ७०-दुराचारी पतिकी सवाम संलग्न साध्वी कान्तिमती १-सामन्तक्रुारीका अद्भत सतीत्व ७२-पतिप्राणा राजपुरोहित-पत्नीके प्रति अपने परदासके दण्डसरूप महाराज शर्यातिकरा अभ्रम प्रवेश तथा राजपुरोदितका सूर्य नारायणसे उन्हं पुनर्जीवित कर देनैका बर्‌ मगना ७३-वावा गोरखनाथके एक चुटकी भस्म चिताषर फकनेपर उसर्मेसे रानी पिङ्गखाका प्रकट दोना ७४-युमङ्गल्का स्वप्नसे उपदेश ग्रहणकर भिक्षु वननेके च्ि मन्दिरमं पर्हैचना तथा पतिप्राणा सिरिमाक्रा पटकेसे दी बर्हो पड़ी रहकर प्रभुसे पिको सद्बुद्धि देनेकी प्रार्थना करना कः भः ७५-देवराज इन्द्रते अमूतकफ़ख्श केकर विप्रकुमारका पिता विष्णुशमाक सम्मुख उपश्ित होना ` ` * ७६-त्रद्माजीका सारसका रूप धारणक्रर तपस्या- गर्व॑से गविंत पिप्पल्को सावधान करना ७७-मतीजे रामर्सिंदका गादजर्होके दुग॑से महाराजा अमरसिंटकी खार खाकर देना तथा रानीका उसे आरिष देते दए चितां प्रविष्ट होना ` ` " ७८-राजपुरोदितका महाराणा प्रताप एवं शक्तसिंहके समक्न अपनी कटार छातीमे मारना ओर दोनों भाइयोको स्ंगड़से विरत करना ७९-इकल्ते युवा पुत्रकी सत्युपर भक्तं नरसीका (मर्दं थयुंरे मोगी जंजाठ खुखेथी भजद्यं श्रीगोपाछः मन्ननका गान क्ररना ०-परहित-निरत पक्षिराज जटायुका गधरःदेह त्मागकर चतुरन नीटसुन्दर दिव्यरूप प्राक्त करना तथा भगवानूका स्तवन्‌ करना १-सवत्र भगवदरौनपरायण ब्राह्मणश्रेष्ठ निष्णु- दासक्रो अपने यश्चकी पृणोहुतिसे प्रूं॑दी भगवान्‌ नारायणके साथ वे्ुण्ठ जाते देख धनदरपसे चण चोलसाजका ग्ानिसे भरकर यजकरण्डमं करूदना तथा भगवान्‌ नारायणका यज्चाम्निर्मसे प्रकट होना

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मरो ६९ , आगीता ओर रामायणकी परीक्ष श्रीगीत। ओर रामचरितमानख--ये दो पेसे अरन्थ है, जिनको भायः सभी श्रेणीके छोग विरोष आद्रव खश्िसि देखते है \ इसखियि समितिने इन प्रन्थोके द्वारा धार्मिक शि्ला-पभरसार करनेके चयि परीष्छाञक्ी व्यवस्था की है \ उन्तीणे छा्ौको पुरस्कार भी दिया जाता है परीश्चाके जिय स्थान-स्थानपर ल्द स्थापित क्र्यि गये है \ इस समय गीता-रामायण दोनोके मिलाकर ७३९ केन्द्र ओर कगभग १६००० परीष्छ(थीं \ विद्ोेष जानकारीके छिये काडं लिखकर नियमावली मंगनेकी छपा करे

व्यवस्थापकः--श्रीगीता-रामायण-परीश्षा-समिति, भीता-भवन, पो° 'खर्गाश्रम' ( देहरादून ) श्रीगीता-रामायणःप्रचार संघ

श्रीमद्धगवद्धीता ओर श्रीरामचरितमानस--दोनौ आरीवीदात्मक प्रासादिक अन्थ हैँ इनके पनेमपूणे स्वाध्याये कोक-परखोक दोनोमे कल्याण होता है इन दोनौ मङ्गलमय भ्रन्थोके पारायणका तथा इनमे वर्णित आद्छं सिद्धान्त ओर विचारोका अधिक-से-मधिक पसर दो--दइसके लिये “गौत(-रामायण- ग्रच(र-संघः ग्यारह वर्षसि चराया जा रदा है अवतक गीता-रामायणके पाठ करनेवारोकी संख्या ७८७९७ हो चुकी है इन सदस्योसे कोद शरक नहीं छिया जाता सदस्योको नियमितरूपसे मीता-रामचरितिमानसका पठन, अध्ययन ओर विचार करना पड़ता है इसके नियम ओर आवेदनपत्

मन्न श्रीगीतसमायण-असार-संघ, पो० गीतप्रेख ( गोरखपुर ) को पञ किलकर गवा सकते है 1

साधक-सध चेयके नर-नासियका जीबनस्तर यथाथेरूपमे ॐचा हो, इसके लिये साधक-संघकी स्थापना की गयी | हे इसमे भी सदस्योंको कोई श्युटक नदी दना पड़ता सदस्योके लिये श्रहण करनेके १२ ओर त्याग करनेके १६ नियम है 1 भरत्येक सदस्यको २५ नये पेसेमे प्क डायरी दी जाती है, जिसमे वे अपने नियमपाखनका व्यौरा लिखते है सभी कस्याणकामी ख्मी-पुरुषोको स्वयं इसका सदस्य बनना चाहिये ओर अपने बन्धु- बान्धवो, इष.मिन्नौ एवं साथी-संगियोंको भी भयत्न करके सदस्य बनाना चाहिये आनन्द्‌की बात दहै कि इसके सदस्यों की संख्या उत्तरोत्तर वद्‌ री है इस समय ८६१३ सदस्य है नियमावली इस पतेपर पत्र लिखकर मगवइये- संयोजक, “साधक संघः, पो गीताप्रेस ( गोरखपुर ) 1

“करयाण'के आजीवन-ग्राहक बनिये ओर बनादये [ आपके इस कार्यसे गीतप्रेसके सत्साहित्य-प्रचारकार्यमे सहायता मिलेगी ]

( १) प्रतिवर्षं “कल्याण'का मूल्य स्रेजनेकी बात समयपर स्मरण रहनेके कारण वी० पी० द्वारा “कल्याणः मिलते देर हो जाती है, जिससे श्राह्कौको क्षोभ दो जाता दै; इसलिये जो लोग भेज सक उने वक साथ पक सौ रपय भेजकर (कल्याण'का आजीवन श्ाहकं वन जाना चादिये चेक या दाप शरेनजर' गीतप्ेखःके नामसे भेजनेकी छपा करेगे वा तज ` ` (३) जो छोग प्रतिवषं सजिष््‌ विशेषङ् ठेना चां उन १२५.०० रुपये भेजना चादिये > आरतवर्षके बाहर विदेहा ) का आजीवन्‌ श्राहक-मूल्य अजिल्द्‌के छिये १२५.०० रुपये सजञिल्दके लि ९५०.०० च्पये या बरहपौडदै। = `

बननेवाठे जवतक रहेगे ओर जबतक “कल्याणः चरता रहेगा, उनको

1

भी आजीवन-च्राहक बनाये जा सकते हँ

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स्तकाल्य, मिल, कारखाना, उत्पादक या व्यापारी संस्था, छ्ृब या

> ~: = ८. गीताप्रेस, पो० गीताप्रे ( गोरखपुर ) 3

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धरमरधक अनन्त शोरयवर्मिन्धु भगवान श्रीकृष्ण

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णसदचयते पूरणस्य पूर्मादाय ूणमवावचिष्यते॥

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8 (> 1) = 46 1) 4 \

6 खे = 6

लोके यस्य पवित्रतोभयविधा दानं तपस्या दया चत्वारश्ररणाः शरुभाबुस्षरणाः कट्याणमातन्वते पुब्रे्पिर [जषिभिविटश ^ # = = यः कामाचयभिवर्णाद्‌ व्रषवपर्बहमपिराजपिंमिविंटशद्रैरपि बन्यते जयताद्ररमो जगद्वारणः

मृद मः संख्या वर्ष 9 | गोरखपुर, सार मष # जनवरी ९६ | पूर्ण सख्या ए७०

धर्मरक्षक धर्मस्वरूप भगवान्‌ श्ीकृष्णकी वन्दना |

जय वखेदेवदेवकी-नन्दनः वजपति नंद-यरोदाराल /

जय मुष्टिक-चाणूरःविमदैकः गज ङबलया-कंसके कार /

जय नरकाखुर-केदिनिषूदनः जरासंध-उद्धारक इयाम जयति जगधर, गीता-गायकः अज्ुन-सारथि-सखा, काम

जय अनुपम योद्धा, खीखामय, योगेश्वर, क्ञानी, निष्काम जय धर्मज्ञ, धर्मः वरदायक, शुचि खखदायक शोभाधाम = `

जय स्वक्षः सर्वमय, शाश्वत, सबौतीतः सवेविभ्राम

जयति परात्पर छोकमदेश्वर, गुणातीत चिन्मय रुणधाम

1

अं १. (4 |

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धममस्तवनाष्टकम्‌

( रचयिता- पाण्डेय प° श्रीरामनारायणदत्तजी शाखी (राम, साहित्याचायै )

सत्तात्मना रखति योऽस्तितया ठसत्स॒यश्चेतनेषु चिदात्मतया चकास्ति ! आनन्दिषु स्फुरति शश्वदमन्दमोदस्तं नन्दनन्दनतवुं प्रणमामि धमम्‌ २॥ यो रचितो जगति र्ति सर्वजीवान्‌ नीतः श्चति क्षपयते नि्ठतो निहन्ति संतिष्ठते कचन येन विना किचित्‌ संधारणो विजयते भगवान्‌ धमेः मूं णव पुरुषार्थचलुष्टयस्य यद्चेक एव॒ परलोकगतस्य बन्धुः य; सेवितः फति मङ्गलमेव नित्यं धर्म॑वृणे तमभिरश्षणवमेवयंम्‌ आधित्य यं सखजति सर्वमिदं विधाता विदं विभतिं किर यस्य वठेन विष्णुः खल्युं जयन्‌ हरति यस्य दरोऽपि शक्तया धर्म॑ तमिज्यचरणं दारणं प्रपद्ये संस्थापनाय भुवि यस्य रक्षणाय लोके दधाति भगवान्‌ विविधावतासान्‌ 1 भारान्‌ भुवः क्षिपति श्रं विदायं साधूश्च रक्षति खदा _ जयतात्स घसः ५॥ चान्यं समेधयति साधयते धनानि कामान्‌ समानयति चापि मनोऽभिरासान सखौभिश्षयमीक्चयति दूरयते इुराधि व्याधि समं शमयते मुवि धमे एव पराणैः प्रगतमनखा निजराष्टरक्षामग्रे सरन्‌ रणमुखे न_ पराङ्युखः स्यात्‌ धर्मी चरणोति मरणादपि कीतिमेव सेव्यः स्मैरपि जनैरत पव धर्मः ॥७॥ उत्साहशौर्यध्रतिदा््यगणान्‌ गरिष्टान्‌ सत्यं साधयति वाधयतीह वाघा भीति भिनस्यपि रणादपलायनस्य भावं विभावयति यस्तसुपेत॒ धर्मम्‌ संसारम जिनका असित है, जो अपने अस्ित्वसे सुशोभित उन्म जो सत्तार्यमे प्रकादित दोता हेः चेतरनौमि चैतन्यरूपसे शोमा पाता तथा आनन्दकी अनुभूति करनेवाले अमन्द आनन्द बनकर छा रहा है, वहं धर्म साश्चात्‌ भगवान्‌ नन्दनन्दनका रूप उन धर्मं देवताको सादर प्रणाम कर्ता ह्र जो अपना रक्षण या पाठन क्ये जनिपर समस्त जीवोकी रक्वा करता है, अपनेको क्षति पर्टुचायी जानेपर उन

४)

क्षति पर्हचानेवालरको क्षीण कर देता दै तथा अपने ऊपर आघ्रात दोनेपर उन घरमंद्रोहियोका भी सवैनाश कर -

डारुता र, जिसके विना कीं कोई भी वस्तु टिक नहीं सकती वद धर्म साक्नात्‌ भगवान्‌ दै सवको धारण करनेवाके उन भगवान्‌ धर्मकी सदा दी विजय होती है जो धर्म, अथ काम ओर मोक्ष चारौं पुरुषार्थोका मूल ३, परलोकर्मे गे हए जीवका जो एकमात्र बन्धु ( सहायक ) दैः जो अपना सेवन क्ये जानेपर सेवकके व्यि मङ्गकमय फक प्रदान करता है तथा जो सव्र ओरसे रक्षा करनेवाला अभेद्य उत्तम कवच है, उस धर्मका मै वरण करता द्र जिनका आश्य लेकर दी ब्रह्माजी इस सारे जगत्की खष्टि करते है, जिनके बल्से दी विष्णुभगवान्‌ सम्पूणं विश्वका भरण-पोषण कसते दै तथा महादेवजी जिनकी शक्तिसे दी सत्युपर विजय पाकर समस्त संसारके संदारकार्यम समथ हेते दै, उन पूज्यपाद ^ देवताकी मे शरण क्ता दर ृथ्वीपर जिसकी खापना ओस्‌ रक्वा करके विवि ठी भगवान्‌ श्रीहरि लोकम नाना प्रकारके अवतार धारण करते, भूतल्का मार उतासते तथा दुष्टदल्का दछन करके साधुजनोकी रक्षा करते = 2 लत जय दो भूत्प्र धर्मं दी धान्यकी वद्धि करता, अनाजकरी उपज वदाताः धनकी प्राति कराता, मनको प्रिय छ्गनेवाटे अमी पदार्थोको भ्रस्त॒त करता, दुभिश्च मिटाकर स॒मि्च (सुकरार ) लाताः दुरन्ता दूर करता ओर समस्त रोग-व्याधिरवोको यान्त कर देता दै ( अतः वदी आश्रय छेन बोग्य दै ) वला वीर पुरुष ही प्राण देकर भी अपने राष्की रषा करना चादता हे ओर युद्ध सुदानेपर सेत्साद आगे वदृता हैः जह्‌ युधे कभी सद नही मोड़ता ओर युको गले खगाकर भी कीविका दी वरण करता है; अतः सव छेर्गको धर्मकरा दी सेवन करना चादिये जो उत्सादः शोय धरति, दक्षता ओर सत्य--इन उत्तम गुरणोकी प्राति कराताः समस्त बाधार्ओकरो दूर याताः मु-भयकरा मेदन करता ओर युदधमे पीछे दटनेका भाव जगाता दैः उस धर्म करी श्रण छो ( इसीसे सवका कल्याण है)) ---=~<~्=~-

धमकी महत्ता

भूं करता है चित्त पवित धम देता दै उच चि (£) धूमं है सदा सभीका श्ित्र) धमं देता है फर सुबिचित्र धर्म॑ करता विपत्तिका नाक्ष ) धरम करता सब पाप-विनाक्च | धर्म॑ द्रत विज्ञान-्काक भम्‌ भरता जीवन उस

(@> 1

धर्मं ही दै स्वका आधार धर्म दी दै जीवनका सार ~ धं करता सवका उद्धार धर्मं दी है विषचद्र आचार

धर्म॑ हरता समाया-तम घोर) ध्मं॑फैराता द्युति प्षब ओर ¢ (~ (~ ४५ (~ धृ रखता नित पुष्य-बिभोर धूमं देता सुख दिव्य अशछोर ¢ = ¢ धर्म॒॑हर केता कलह क्लेश ध्म हर ठेता राग्धेष॥

धर्म॑ दहरता हिसा निःकेष ) धमं उपजाता दया विशेष

धर्म॑हर लेता सारी घ्रन्ति) धू्मं॑हर रेता मोह-अशान्ति॥ धर्मं॑हर छेत सारी श्रान्ति। धर्षत मिलती शाश्वत शान्वि॥ ९) धर्मं करता कभी गुमराह धर्मस बढती साचिक चाह धर्म॑ हर दुःखोी पाह ध्म कखाता त्याग अथाह धर्मस मिलते इच्छित काम) धर्मे मिरे अथं तमाम धूर्मसे मिलता पद निष्काम धर्मे युक्तिखभ सुखधम धर्मम सहज अर्हिसा-सत्य धर्मे सदाचार सब नित्य धर्ममे रहते गुण संचिन्त्य धर्मे मिटते भाव अनित्य धर्मम नहीं नीचतम खार्थं | धर्मका रक्ष्य एक परमाथ धर्मे सफल सभी पुरुपा्थं | धर्मम पूणं॑व्रह् एका्थं॥

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धर्मम नहीं $मतिको खान धमै विमल बुद्धिकी खन प्ल

धर्मसे होता नित्योस्थान धूमंसे मिलते शरीभगवान धर्म॑कर॒ अधका सहज अभाव धमं उपजाता पावन भाव धर्मे बढता सेवचाव धर्मस बढता भगवद्धाव धर्मं कर॒ दिव्य विवेक-विकास धूम करता त्रितापका_ नाद (८) धर्म॑ उपजा प्रञु-पद्‌-विश्वास् | धमं कर देता प्रथुका दास धर्मसे भिरुता अचर सुहाग धर्म॑ कर देता शुचि बडमाग्‌ धर्म॑ उपजीता विषय-विराण | धर्म॑ देता ब्रथु-पद-अनुराण

[० ६८८ <<<<<---

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=== ज्ज च्च््््व्जच्च्व्व्च्च्च्च्च्च्च्व्च्व्य चच त्यय ~~~

घमो रक्षति रक्चितः

श्रीजगदगरु आदयरांकराचायं तथा सनातनधमं

अनन्तश्रीविभूषित जगद्ुर शंकराचाय॑ श्रीद्रारकाशारदापौठाधीश्वर श्रीमदभिनबसच्चिदानन्दतीथंसवा पीजी महाराजका प्रसाद )

(धमो विश्वस्य जगतः प्रतिष्टा नारायण-उपनिषद्के | इस वचनानुसार धर्मं दी समस्त जगत्का आधार दै धर्मरूप ॥) मू आधारपर दी जगत्‌ अवसित है ओर स्वं कायं चला रहा हे 1

भ्यदा यदा हि धर्मस्थः गीतोक्त भगवानके वचनानुसार

# जव-जब धर्मकी ग्छानि होती है ओर अधमंका अभ्युत्थान

| होता दैः तवतव भगवान्‌ खयं पुनः-पुनः अवतार ठेकर | धर्मरक्षण करते दै यह सवंविदित दै

| कलिदुगके प्रारम्भे ढाई हजार वेके बाद्‌ जत्र पुनः | धर्मकी ग्लानि दई, तव साक्षात्‌ मगवान्‌ शङ्करने दी आद्य-

दंकराचाय॑रूपमे अवतीर्णं होकर धर्मोद्धार करिया श्रीमदाघ्य- शंकराचार्यका चरित्र कौन नहीं जानता उन आचार्यचरणने जिप्न समय अवतार ल्या; उस समय भारतकीो लिति दी विचित्र थी | चार्वाकः ठोकायतिकः बद्धः जेन आदि वेद माननेवाठे तथा कई तान्विक ओर विचित्र मतवाले प्रबल दोकर परस्पर श्नगड़ते ये बौद्धौका प्रभाव तो बहुत अधिक बद गया था सनातनधमे छकतप्राय दो चला था | उस समय आचा्य॑चरणने बहुत थोड़ी दी आयुम अत्यधिक परिश्रम करके विवादिते शाखां कर सनातन वेद-धर्मकी तथा विरिष्य चादुवण्य-व्यवस्थाकी, पुनः प्रतिष्ठा कौ गीताः उपनिषद्‌ तथा ब्रह्मसूत्रके ऊपर

महाभारत, अनुशासनपर्व धर्मपुत्र युधिष्ठिरे दाया पू जानपर भीष्म उद अनेक धर्मोका उपदेश करते 2 समस्त धर्मसम्बन्धी प्रशोत्तरोके बाद धर्मपुत्र उनसे पृछ ट्‌ कि अच्छा, अव सवर धर्मि अधिकतम --शरष्टतम धम कौन हे, यद बताइये ।› इसके उत्तरे भीष्मपितामई--

प्रमाणसिद्ध अपूर्वं माष्यादि अरन्थोकी रचना करके वेदिक अद्वैत वेदान्तक्रा पुनरुज्जीवन तथा प्रतिपादन क्रिया

अद्वेतसिद्धान्तके तथा सनातनधर्मके संरक्षण ओर प्रचाराथं चार दिशाओंमे द्वारका, परी, श्रँगेरी ओर जोक्षी- मठे चार धर्मपीठ स्थापित क्रिये | मटाभ्नाय-गरन्थद्वारा गुखशिष्यादिकौका कर्तव्य-निदँश करके धम॑का आचरण अक्षुण्णतया चलता रेः इसकी सुव्यवस्या को

विरोषरतः विविध सम्प्रदायो, मन्तव्योसे तथा सामाजिक

राजनीतिक अव्यवस्थासे छिनन-मिन्न दोते दए. भारतको

बचाया ओर ब्रह्मवादके द्वारा एकताकी प्रतिष्ठा कौ |

"भायां रतः भारतः जो भा--प्रतिमा--ज्ानमे रत दै, आसक्त दै वदी भारत दै इस उक्तिके अनुसार आपने भारतकरो वस्तुतः भारत बनाया

भारतके निमाताओंम जगद्‌गुर आशंकराचायंजीका स्थान आद्य दी दै इन चार पीटोके आजतकके उत्तरोत्तर अनुगामी शंकराचायंगण भी अनवरतरूपते वेदान्त-सिदधान्तके तथा वैदिक सनातनधर्मके प्रचारकारयम नित्य रत दै

प्रकेत पाश्चाच्य संस्छृतिके आक्रमण ओर अन्यान्य बिविध कारणोसे भारतम जो धर्मग्लनि दोती रदी दै, उसे दूर कुरनेके चयि तथा भारतीय विशद आदंकी रक्षाके छियि अव सभीको कटिवद्ध हो जाना चादिये

+ © [ मिं

सर्वोपरि धमं

( जन्तभीविभूषित जबर शंकराचायं श्रीकान्रीकामकोटिपीठाधिपति

श्रालामी चनद्रशेखसे्रसरस्वतीजी महाराजका शयुभाञीवद )

= (~

एष मे सर्वधमौणां धर्मोऽधिकतमो मतः यदूभक्त्या पुण्डरीकाक्षं ॒स्तवररचे्नरः सदा 1%

विष्णुसदखनाम ) -एेसा उपदेश करते

# मेरी दृष्टि धर्मों सवसे बड़ा धमं यदी है किं मनुष्य

सदा कमलनयन भगवानूकी स्तुतिर्योदरारा अर्चना किया करे

9

-

धार्मिक चेतना #

इस ॒दटोकके अपने भाप्यमै परमाद्धैतसिद्धान्तके प्रतिष्ठापक भगवान्‌ शंकराचार्य भी भगवान्‌की स्वुतिकरो दी ्रक्रष्टतम धर्म निर्धारित करते दै अपने देरके सभी वाल्क-बाल्किार्ओको भगवद्धक्तिपूणं कोई छोटी सी स्तुति अवश्य कण्ठ रखनी चादियेः जिससे मव्रिष्यर्म जनतामे कुछ भक्तिका आविर्भाव दो आज भी ब्रहुतते बूढे टोगः जिन्दौने बाल्यक्राखमे एक भी भक्तिस्तोत्र कण्ठ नदीं करिया या; इसके ल्यि पश्चात्ताप करते दीखते दै ओर कते दँ करिदटमतो व्रेकार दी वरैठे रहते दै ओर यो दी समय न्ट करते है इस विषयमे सभी आस्िकोको अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार रष्टोद्धार तथा आत्मोद्धारके च्य कुछ करना चाद्ये जो कण्ठस्य पाट करलेर्म सुल्म होः रेष्ठ भगवस्प्राप्त मदापुसपरौके सुखते निकटे हौ एसे छोटे

छोटे सोत्रौको पुस्िकारूपमे छपाना चादि इन्द देके

>>> पद

छोटे वाल्क-वबालिका जिस प्रकार कण्ठस्य कर ठैः वैसा प्रयत्न करना चाहिये कण्ठाग्र करनेवाठे बाल्क-बालिकाओं- को एक कोई चौदीकी भगवच्चिहाङ्कित सुद्रा देनी चाहिये ओर विष योग्य धर्मपरीक्षोत्तीणं विद्यार्थियोको अगली कश्चाके योग्य पुस्तक भी दी जानी चादिये मुद्रणाख्य- अधिक्रारी, धनी-मानी सेठः पुस्तकविक्रेताः विद्याल्य-संचाल्क प्रन्धकगण यदि इधर थोड़ा ध्यान दँ तो ब्रहुत कुक कार्यं दो सकता दै इससे वातावरणे पर्याप्त सुधार तथा परिष्कार दो सकेगा-- स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ( गीता २1४०) इस मदाकार्मे आयोजना देश-प्रदेशकी कीत॑न- मण्डर््यो ओर भजन-समाजादि मी सव्र-सभा-सम्मेकन आदि करेगे एेसी नारायणःस्मृतिके साथ श्चुभाा करता दू

धार्मिक चेतना

( श्रीश्गेरीभठधरीश्रर अनन्तश्रीविमूषित जगहर श्रीडंकराचायंजी महाराजके सदुपदेरा )

ध्म दी दिदुओंके धार्मिक जीवनका मूढ स्वर दै ` सामाजिक एवं नैतिक आचरणं व्यक्त आध्यात्मिक जीवनक्रा दी नाम धर्म | मानव-जीवनका यदी आश्रय ओर आधार हे रामायण ओर महाभारत धार्मिक जीवनकी व्याख्या उपदेश ओर उदादरणद्वारा करते महाभारते धर्मराज धमक एक मदान्‌ उदाहरण दै करंतु रामायणके श्रीराम तो साक्षात्‌ धमकी मूरति दी दै “रामो विभ्रहवानू धर्मः, धार्मिक जीवनका अथं दै--“आ्जवः ओर (अिंखा' धार्मिक व्यक्ति खयं तपसी दोता दै तपस्याके अन्तर्गत ब्रह्मचर्य क्षुधाका दमन तथा शरीरम सर्दी-गरमी एवं अन्य कष्टौको सहनेकी शक्ति लनेवाठे विभिन्न साधनोकी भी गणना दै विवेक तथा उचित निश्वयके साथ की हुई ये तपस्यार्णे भक्तको आध्यात्मिकं स्चंकारके साथ अपने तन-मनकी जनको मिला देनेमे सदायक सिद्ध दोती दै आत्मानुशासन- का अथं अपनेको यन्त्रणा देना नहीं तपका महत्तम उदेश्य सनातन आत्मानन्दके बदले क्षणभङ्कुर इन्द्ध सुखोको श्रेष्ठ माननेवाटी मनुष्यकी कुबुद्धिको बदर देना एक महात्माने हृदयमे पैठनेवाटी बात कदी दै किं “जहौ धरम है, वदं साथमे सुख भी है धामिक जीवन व्ितादये

ओर आप सदा सुखी रदैगे कोई व्यक्ति चिभुवनका खामी होकर मी दुखी रह सक्ता दै ओर द्रति दख मिखसंगा भी संसारका सवसे अधिक्र सुखी प्राणी दो सक्रता है भगवान्‌ एक कदम ओर भी आगे वद्‌ गये उन्दने कहा दै वयतो धर्मस्ततो जयः'--“जरदौ ध्म॑दैः वहीं जय दे ।›

धर्मं क्या है धर्मं प्रणाली अथवा संस्था है, जिसकी सरवाङ्गपूणं परिमाषा बन चुकी है ओर जिते सनातन ध्मके नामसे पुकारा जाता है तो क्रिसी समयविशेषे इखका आरम्भ हुआ तथा किसी विशेष संस्थापकसे दी इसका श्रीगणेश हआ सनातन्‌ होनेके साथ दी यह साव॑भोम भी यह प्रथ्वीगत सीमाबन्धनको नदीं मानता जितने रोग विश्वमे पैदा हो चुके है ओर जो उतपन्न होगे, वे सवर इसीके अन्तर्गत है इसके नियमसे सनुष्य वच नदीं सकता चीनी मीठी होती है ओर आग जलाती दै, ये सनातन्‌ सत्य अपनी वास्तविकताके स्यि इस वातपर निर्भर नदीं रहते कि दम उनको मानें हम इन सत्योको मान छेते तो हमारे स्वि शुभ ओर कल्याण है; दम नहीं मानते तो हमारे लिये उसी मात्रामे अ्यभ तथा अमङ्गल दै

=-= ~~~

+ दोनो दी परिख्थितियेोमे नियम तो सार्वभौमः, अविकारी ओर सनातन दी रहेगा एेखा दै दमारा धर्मं हमारा विश्वास दै कि वेद्‌ खयं भगवानकी वाणी दै खष्िके पश्चात्‌ भगवानूकी जगह किसी अन्य उपदेशकके द्वारा बाद्‌- चलाया हुआ कोई भी ध्म निश्चितरूपसे अपूर्णं ओर अनित्य होगा वेद्‌ दी एक खा मञ्च दैः जिसपर समस्त दिंदू समान अधिकारसे भिर सकते प्रस्ानत्रयीमें वेद भी एक दैः जिसके प्रमाण ओर अधिकारको अबतक सवने माना दै यह बन्धन द्टा किं दिदू तितरःबितर हो जार्येगे | कहा गया है कि धर्मकी अवदेकना करनेवाला ओर शाख्नोके विपरीत आचरण करनेवाला नष्ट हो जायगा तथा तत्परतापू्वेक धमेके मारगपर चल्नेवाठेकी रक्षा दोगी धमं एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः धमेका सर्वप्रथम ओर सवंप्रधान सिद्धान्त है--अपने माता-पिताका आदर करना इनमे भी उन माताका पठे ओर पिताका बादरम जिनसे हमको अपने शरीरकी प्राति हई है उनके बाद आचार्यं अथवा गुसुकी पूजा करनी चाहिये-- मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव सामान्य ध्मिसे नीचे कुखका नामेोष्छेख किया जाता है जीवनके प्रलेक कषेत्रम सभीको इनका तल्परतापूर्वक अनुसरण करना चादिये--

(१) अहिसा, (२) सत्य, ( ) अस्तेयः (४ ) शोच, (५ ) इन्द्रिय-निग्रह

इनके अतिरिक्त अपने भीतर श्रद्धाका भी बीज बोना चाद्ये ओर सदा मकी आदा रखनी चादिये साथ दही सभी प्राणियोको कुछ देनेका अभ्यास करना चादिये वासवम दानको उन सिद्धान्तो माना गया दैः जिनपर हमारा धम आधारित दै 1 फिर मनुष्य जो कु करे, अत्यन्त श्रद्धाके साथ करे सच पूषा जाय तो श्रद्धाको सीमा भनेर आत्माका खरूप दी माना गया दै श्रीमगवान्‌ने कहा है-- श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः एव सः

(अदिसाः धर्मक पक अन्यतम सिद्धान्त दे धमक यद ` सिद्धान्त सर्वथा यक्‌ आघारपर खड़ा दै यद भी कदा गया कि सत्यः परम जौर दया-चरमके तीन मूल सिद्धान्त ३।

# धमां रक्चति रश्चितः #

अंसा ओर दया प्रायः समानार्था हँ अर्दिसाका एक पाञ्च प्रेम है ओर दूसरा पाव दया दोनों मिलकर अदिंसाका समं | चिच प्रस्तुत करते दै

र. |

प्रेमा अर्थं दै -दूसरौको खुख पर्हुचाना ओर उनके सुखसे प्रसन्न होना अपने दी सुखसे दित दोना प्के च्थि मी सरल है परंतु दूसरी प्रसन्नताके ल्यि प्रयत्न करना ओर क्रियाशील दोना ही सच्चा प्रेम दै अरदिंसाका अपराद्धं हम दूसरके दुःखम दुखी होनेकी प्रेरणा देता है ओर इसीका नाम दयादै दूसरके व्यि ओस्‌ बहाना ही पर्यास नदीं दया कवठ भावम भरकर द्रष्टा बनकर रद जानेको नदीं का जाता दयासे अनुप्राणित व्यक्ति दुःखम पड़े प्राणीकी पीडको अपनी दी पीड़ा समञ्चकर सहायता करनेके स्थि दौड पड़ेगा ये दोन पद्ध मिख्कर अर्िंसाकरा सम्पूणं चित्र उपस्थित करते अर्दिंखाके साथ सत्यको जोड | देनेपर व्िल्छुकू पूरा चित्र तैयार हो जायगा रामका विशेष गुण (सत्यः बताया गया है ओर श्रीकृष्ण दै -श्रेमके अवतार | संस्कृत शब्द सत्यःकी व्युखत्ति दो पदोसे हुई है “सत्‌ जिसका अथै है पृथ्वी, जल ओर अग्नि ओर ध्यः-जिसका | अथ हे वायु ओर आकाश इन पचि तलोम भगवान अतिरिक्त ओर क्या व्याप्त है इसी रीतिसे भगवानूको परथवीः | से मिलाया गया |

दूसरौकी निःस्वा सेवा दी मनुष्यकरा कर्तव्य है सेवा | दूसरौका उपकार करनेको दष्टे नदी, वरं अपना जीवन | धमं मानकर करनी चाहिये प्रत्येक व्यक्तिको याद्‌ रखना | चादिये करं उसकी गुह्यतम भावना मी उसके एवं दूरके | ऊपर प्रभाव डाठ्ती है इसख्यि मनुष्यको आत्मनिग्रहका अभ्याख करना चादिये, जिससे दुरविचार मनके बाहर रहं ओर | वर्ह शरेष्ठ एवं महान्‌ विचारोको खान मिले

यह भी आवश्यक है किं मनुष्य मनकी भोति अप | तनको भी निम॑र ओर खच्छः रक्खे; ककि कहा है “लच्छता | दिव्यताकी पदी सीदी है मनुष्य अपने विचारोका पुतला बह जो सोचता दैः वदी वन जाता दै अत | बुराईके प्रजेभनको कुचल डालना चाहिये | मन चञ्चल दै! ओर वायुकी भति कठिनतासे वमे आता दै इसको निरन्तर अभ्यास ओर वैगग्यके द्वारा नियन्त्रण रखना चादिये इसका स्वभाव दी चञ्चर दै | सबको अपने निर

> सनातन-चार्सका स्वरूप

कमं प्रतिदिन नियमपू्ैक करने चादिये ओर अपने सनको

- मणिके समान खच्छ रखना चादिये | यद मी आवश्यक दै कि मनुष्यको अपने जीवनके इस उदेश्यका स्पष्ट ज्ञान दो करि 'भगवानकी पूजा दी सर्वो्छृष्ट उदेश्य भगवान्‌के धर्म॑का पालन करते हुए उनक्रा काम करना ओर प्राणिमात्रकी

निःस्वा सेवा करना सव्रसे ऊँची पूना दै |

उसक्रा आधार दै

जो कुछ भी उक्र ओर उदात्त दै

सत्य जो कुक मी कदा जाय, वह्‌ सत्य ओर सुनने प्रिय हो ्रवणकट़ वात सत्य होनेपर भी नदीं कहनी चादिये ओर श्रुतिप्रिय किंतु मिथ्या वचन भी नहीं बोढना चादिये धर्मक एक प्रमुख सिद्धान्त सत्यका यदी ठीक-ठीक तातयं है यही कदा भी गया दै-- सत्यं ब्रूयात्‌ प्रियं वरूचान्न व्रूयात्‌ सत्यमप्रियम्‌ प्रियं नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः

ल्भ्य -

नात

( मूल अमरेज्री ठेखक्-अनन्तश्रीविमूपित

न-ध्का खूप

जगहर श्रीगोव्नमठाधीश्वर ब्रह्मलीन

स्वामीओी श्रीभारतीक्रष्णनीधंजीपदासज )

[ अनुवादक -श्री्रतिश्ीलजी कामा तक॑रिरोमणि ]

>€ >€ >< सनातनक्रा अर्थं दै ननिव्यः | वेदिक धर्मक्रा नाम (सनातन-धमैः अत्यन्त उपयुक्त दै अन्य किसी मी भाषां '्वम॑ःका वाचक कोई शब्द नदीं मिलता अग्रेजीमं॑ इसके च्यि 'रिखीजनः शब्द्‌ है, पर धर्मका भाव °रिलीजनम प्री तरदसे नदीं उतर पाता ] ^रिलीजनः शब्द धर्मके उस भावको चि हुएदैः जो बहुत सीमित ओर संकुचित है; पर सनातन-ध्मं इतना विशार दै कि इसमे टमारे इस जन्मके दी नदी, अपितु पूवंजन्म ओर भविष्य-जन्मके सभी विषयो ओर प्रिणामोका पूर्णतया समावेश हो जाता है

शास्त्रम धर्मकी परिभाप्रा धारणात्‌ धर्मः, की गयी | अर्थात्‌ धमं वहदैः जो हम सव तरहके विनाग ओर अधोगतिसे वचार उन्नतिकी ओर ठे जाता है अतः 'रिलीजनःकी तरह 'र्म' शब्द सीमित ओर संकुचित अर्थवाला नदीं है उदाहरणार्थ वेद केवर पारलोकिक युख-प्ाप्तिका मागं बताकर दी नहीं रह जाते, अपि इस ठोकमे सर्वा्गीण उन्नति ओर समृद्धिके पथका भी प्रदान करते दै ध्मके सनातन-धमेके अथे पहा अर्थं व्याकरणकी दष्टिसे 'सनातन-धमैभ्म षष्ठी-तत्पुरुषसमास दे अर्धात्‌ “सनातनस्य धमं इति सनातनधर्मः | सनातनका धर्म, सनातनम ल्गायी गयी प्रष्ठी विभक्ति साप्य धकी बरे (8 शदो =

खापक-सम्बन्धकी बोधकर है दूसरे शब्दोरमे--जिस प्रकार ईसाई, मुदग्मदीः जरथुस्त तथा बौद्धधर्म अपने साथ दही

ईसा; मुहम्मद्‌ जरशुस्त तथा बुद्धके भी बोधकर दैः उसी प्रकार सनातन-धम भी यद्‌ बताता है क्रि यदं धर्म उस सनातन अर्थात्‌ नित्य तच परमात्माद्वारा दी च्छया गया दै क्रिसी व्यक्तिके दवारा नहीं

सनातन-धर्मको छोडकर ओर सभी धर्मौको दो भागम वोदा जा सकता दै--( ) वे धम जो पूर्वकाल्म थः पर अव विद्यमान नहीं हैः (२) वे धर्म जो पूर्॑काल्म नहीं येः प्र अव्‌ हँ पर सनातनका अन्तर्भाव इन दोनेमेसे करिसीर्मे भी नदीं किया जा सकता; क्योक्रि यह धर्म॑ अन्य धर्मक जन्मसे भी पूं विद्यमान था ओर अव भी विद्यमान दै

--पर भविष्ये इस प्ररनके प्रसङ्गमे हे “यज्जन्यं तदनित्यम्‌ (जोउसन्न हुआ हे, वद अवश्य नष्ट हो जायगा)-- यह प्राकृतिक नियम ध्यानम रखना पड़ेगा इस नियमका कोई अपवाद अव्रतकर हआ ओर आगे कभी होगा ही उदादरणखरूप--सज्जनीकी रक्षा ओर दुषटके विनाश तथा धर्मके संस्थापनके च्य जवर भगवान्‌ मानवःशरीरके रूपम अवतरित होते दै ओर अपना कायं पररा कर कते हैः तत्र वे चङे जते ठै; इस प्रकार भगवानक्ा अवतरित दिव्य शरीर भी इस प्राकृतिक नियमकरा अपवाद नहीं है

दुसरा अथे

सनातन-धम अनादि ओर अनन्त दै; क्योकि सष्िकीः उद्पक्िके समयसे ठेकर सृष्ि-्र्यतक यह विद्यमान रहतां हे यह सनातन इसच्यि नही है करि यद सनातन इश्वरदरारा

^ नागन - दैः अपितु यह स्वयं भी सनातन या निल दे यद्‌ भ्रल्यतकं अस्तित्वं रदेगाः प्रख्यके वाद्‌ भी यदह नष्ट दोने- वारा नहीं दै, अपितु राप्तरूपमे तब भी यह अवसित रहता दै पुनः खक साथ दही यह लोगोकी रक्षा ओर उन्नति करलेके स्थि प्रकट हो जाता दै। व्याकरणकी दष्टे इस दूसरे अर्का बोधक कर्मधारय समास दैः जिसके अनुसार (सनातनधमेः इस पदका विग्रह होता ै- “सनातन इचासौ धर्मश्च" अर्थात्‌ सनातनसूपसे रहनेवाला धर्म

इसका अथै यह्‌ नहीं है कि दूसरे धर्म॑श्च रै इसके विपरीत हमारा तो यह कथन दै किं सभी धर्म करिसी-न-किसी रूपे उस अन्तिम लक्षचतक मनुप्यको परहचाते ही दै पर वे किसी व्यक्तिविरोषके द्वारा संस्थापित होनेके कारण समयके साथ नष्ट भी हो जाते द; यदह सनातन-धरम॑दी ठेसादैः जो सष्टिकाल्मे सारी र्चनाको उन्नतिकी ओर प्रित करता है प्रख्यम सूक्ष्मरूपसे रहता दै ओर अगङे कल्यमें पुनः प्रकट दो जाता दै

तीसरा अथ

इसमे भी “सनातनधर्मः कर्मधारय समासमे दैः पर यहो “सनातनः, पदमे दूसरे अथ॑की अपिश्षा कुछ ओर विरोषता दै र्हा उसक्रा विग्रह होगा--

सदा भवः सनातनः, सनातनं करोति इति सनातनयति, सनातनयतीति सनातनः सनातनश्चासौ धमम॑इति सनातन- धर्मः

यह्‌ सनातन केवर इसय्ि नहीं दै किं यद सनातन परमात्माद्वारा संस्थापित दैः यद धर्म सनातन इसख्यि भी नहीं है कि यह स्वयम अविनश्वर दैः अपितु यद सनातन इसय्थयि है किं इस धर्मम विश्वास रखनेवाखा तथा इस धर्मपर चल्नेवाद् भी सनातन दो जाता हे यह धर्म अपने अनुयायीको भी अमर बना देता

इसकौ ओर गहरा समन्चनके छि दमे ओर राच्योकी ओर भी ठलनात्मक दिते देखना पड़ेगा भ्रीसः रोमः सीरिया, असीरिया, परियाः वरेव्ीठनः चाद्डिवनः फीनिशियाः मिश्रः निनेवा, काथेडा तथा दूसरे भी साम्राज्य नि सारी दुनियाको दिखा दिया या, आज पृथ्वीकी था समाप्त दो चुके उनके पास धनवटः

# धमां रक्षति रक्षितः ४.

-------> ` लन जस्यसय गय ल्वय यव्य ~~~

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ल्यः उनके सम्पूण विनाशका कारण बना पर भारतके पास यह्‌ शक्ति थी; इसीख्ियि वद आजतक जीवित रहा | इसा संशय नीं किं इसको जीवित रखनेर्मे सनातनधर्म एकं मुख्य कारण रदा दै, जो--

( ) सनातनत्त्व अरात्‌ परमात्माहयरा संखापित ( पला अ्थ- सनातनस्य धर्मः, प्रष्ठीतःपु रप्र समास अथात्‌ | सनातनका ध्म ) |

(२) खयं मी सनातन दै ( दूसरा अर्थ-सनातनश्वासौ | धमः, कम॑धारय॒ समास ) | (३ ) अपने अनुयापिर्योको भी सनातनः नित्य तथा अमर वना देता है ( तीसरा अर्थ--सनातनयति हि सनातनः, सनातनश्चासौ धर्मः इति सनातनधर्मः ) यर एक प्रश्न उटता है किं इस धर्मकरे अनुयाय | अमरत्वका स्वरूप क्या है ? इस प्रदनका उत्तर द्म (सनातन. धमः शब्दके चौभे अर्थम मिरेगा चौथा अर्थं | इस चौथे अर्थम भी तीसरे अर्भकी तरद (सनातन्‌ कमंधारय समासदः अर्थात्‌ सनातनयति इति सनातनः? अर्थात्‌ वह धम जो हम सनातन बनाता है सनातनधर्म है पर यहं | “सनातनयति' का अथं होगा--‹सनातनं परमात्मस्वरूपं | भरापयति इतिः अर्थात्‌ जो हमे परमात्मस्वरूपको प्राप करवाता दै, वह धर्म॑ सनातन-धरम है इस धर्मके मागर | चल्नेवालख अपने नित्य शद्धः बुद्धः मुक्त सचिदानन्दस्वरूपः | का साक्षात्कार करके परमात्मके साथ एकं दो जाता दै यह सनातन-धर्मका सचा सरूप दैः जिसे अपनाकर | मराचीन भारत बहुत उन्नत था पर आज जव उसने | धमकी अवदेख्ना कर दीः तवर वहं दिनोदिन अवनतिकी | ओर दी चखा जा रदा है। जो धर्मशाखरको छोड़कर स्वेच्छापूरव॑क काम करता दैः उसक्री अवनति 1 दो जाती हे ेसे व्यक्तियोके विषयमे दी भगवानने गीतम कदा है-- यः शाखविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः सिद्धिमवाप्नोति सुखं परां गतिम्‌ तस्माच्छास्त्रं॑प्रमाणं ते कार्याकार्यन्यवस्थितौ जात्वा शाखरविधानोक्तं कम॑ कर्तुमिहा॑सि (| < “जो शास्रविधिकी अवदेना करके मनमाना का

# धर्मका खरूप ओर माहात्म्य

करता है, वह सिद्धि प्राप्त करता हैः सुख दी प्राप्त करता है ओर मोक्ष दी प्राप्त करता दै इसथ्यि दे अर्जुन ! तेरे कार्यं ओर अकार्यकी व्यव्रस्धामे शाख दी प्रमाण है, सुतरां शाछ्रप्रतिपादित विधानको जानकर तदनुसार कायं कर |?

मनुने कदा है--

= गु धर्मक सह

धर्मं एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।

ष्टनन क्रिया हुआ ध्म प्रजाकरो भी मार देता दै ओर रक्षित हुआ धर्मं लोगोकरी भी रक्षा करता है

सनातन-ध्मंका यदह स्वरूप इतना उच्च ओर श्रेष्ठ दैकरि इसकी वुटनामे संसारका कोई भी धर्म नदीं सक्ता

नोः र्‌ ह्य "क ) ॐर्‌ बाह्यल्स्प

( पूज्यपाद अनन्तश्री स्वा वीजी श्रीकरपात्रीजी महाराजका प्रसाद्‌}

शभाश्यम कर्म-वासना-वासित परमाणु दी धम दै--यदं विवसनं ( जनिय ) का मत है क्षणिक बिज्ञान-संतते- वासना दी धर्म है-यह सौगत (बौद्धो) को अभी है योग-्ानादिसे व्र्तिवेके निरोधद्रारा जीवन्मुि धमं हे यह सां्ययोगवादियोका मत दै पिदित-प्रतिपिद्ध कमेकि आचरण तथा वर्जनद्रारा प्राप्त विरिष्टं गुण धरम है--यहं नैयायिकका मत है। अपूर्वं दी घर्मं है-यद प्रमाकरादि मीमांसकरौका कथन है वेदाज्ञापाटन ही धर्म है-यद | 'वख्वदुनिष्टा-

ञरिनिके अनुयायी मीमांसकरका मत है प्रयोजकत्वे सति श्रेयःसाधनतया वेदप्रमापितत्वसेव धर्मत्वम्‌^-वल्वान्‌ अनिष्टमे रक्षक एवं श्रेयस्कर टोनेसे वेदाज्ञा- प्रमाणता दी घर्म है- वस्तुतः यदी सवका निष्कैः एेसी-- विद्वान्‌ आनच्ार्योकी समन्ययाथं मान्यता है

प्रवरत्ति-निव्र्तिकरे भेदसे यहं वेदोक्त धमः भी दो प्रकारका कटा गया है--

द्वाविमावथ पन्थानौ यत्र वेदाः प्रतिष्ठिताः|

प्रवृत्तिलक्षणो धमो निवृत्तौ सुभाषितः

( बह्मपुराण २३७ ““" महाभारत शानिपवं २४१ )

-इन्दे दी ज्ञान ( सांख्य ) योग तथा कर्मयोगसे भी अभिदित किया गया है ] सनक सनन्दन, सनत्युजातः शयुकदेधादि महात्मागण नित्रत्ति-धर्मके अनुयायी है ।% अन्य धर्मात्मागण प्रतत्तिके अनुयायी दै इन दोनों धर्मेम रिक्त धर्म-कर्म चदे महाफट्दायक-राव्येश्र्यादिदायक भी क्यो हो, नदीं करना चाहिये; क्योकि आगे उसका परिणाम श्ुभावह नदीं दोता--

# इनके उदादर्णोको रपष्ट करनेके खयि भहाभारन शानििपर्व १४३-१४९, अनुल्ञासनपवं, अध्याय आदिकवी कथां भी देखी जा सकाी हे

ध० अं० २--

धमौदपेतं यत्कं यद्यपि स्यान्महाफलम्‌ न॒ तत्सेवेत मेधावी तद्धितमिहोच्यते ( महाभारत शान्तिप० २९३ ) एसा कं पीछे कर्ताकी समूल ाखोपराखाओंको दग्ध करता हुआ चटा जाता दै नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव कतुमूंलानि छन्तति मूलानि प्रशाखाश्च दहन्‌ समधिगच्छति

शन रावर्तमानस्तु

( नुस्छि १७२१ बदाभास शानिपवे ९५ १७-१८ ) जो यद समञ्चक्रर कि “अरे धमं करटौ है १, धथ तथा [१ = =, धमात्मा्ओंका उपहास करता दैः वह विनादको दी प्राप्त होता है धर्मोऽस्तीति मन्वानः शुचीनवहसन्निव अध्चदधानश्च भवेद्‌ विनाशसुपगच्छति ( महाभारत शान्तिपवं ९५ १९ २० ) अधर्माता पुरुष (या देशा भी ) कभी-कमी वण, दिरण्यकदिपुः दुर्योधन आदिक समान वदते है; पर अन्तमे उनका भीषण विनाश हुए विना मी नहीं रहता-- अधर्मणेधते तावत्‌ ततो भद्राणि पस्यति ततः सपत्नाञ्जयति समूरस्त॒ विनङयति ( मलुस्छी १७४, महाभारत वनपवं॑ ९४ तथा ब्ह्मवैवतेपुराण प्करतिखण्ड १४ २६ श्यादिका भाव €. अतः धमद्यूलय अथ-कामका भी सर्वथा परियाग कर देना चादिपि--

= # इत सम्बन्धमे स्कन्दपुराण, भाहेरवरखणडके नन्दभद्र- सत्यत्रत-संवादकी विस्तृत कथा देखनी चाहिये

९०

*# धर्मां र्ति रक्षितः ` =-= ------ ~ |

परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ

मनुस्टेति १७६१ विष्णुपुराण ११ ७, कौटलीय अथेशास्० १1७1८)

अकेला धमं दी सर्वत्र सहायक-रक्षक होता दै- -

धमे एको मनुष्याणं सहायः परिकीर्तितः

( ब्रह्मपुराण १२७ )

| धर्मस्तमनु गच्छति |

( मनुस्खति २४१-४२ ) वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये | रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि | | ( नीतिरातक ९९ पु० सि० १।५३ ) [ धर्ससे दी अ्थ-काम-मोश्चादि सभी सुख मिलते धमं॑ही सभी पुरपरार्थोका मूल दै ( मनु ° चाणक्यसत् १-२० `) धरम॑लेशम भी जो आन्तरविद्द्ध सालिक रुख-- आनन्द उपरङ्न्ध होता हः वह्‌ अर्थ-कामादिमें करटौ हे# अतः सदा धर्म दी मन र्गाना चाये घर्मदीन प्राणीका जीवन तो अत्यन्त ही चिन्त्य दै

अनित्यानि शरीराणि विभवो नेव शाङवतः।

यूसोप-अमेरिकिके रंगमें रगा ओर विज्ञानके चकाचौँधमें कैसा आजका भारतीय युवक भी कहने छग गया दहैकरि ईदवर ओर धर्मके प्रति हमे धरुणा हो गयी दः अत इस्‌ विषयमे दमारे साथ चर्चा करो परंव॒ भाई तो नवको भूक रे हो जिस ईरसे लमक धृणा हैः वह ईश्वर तो वम्दारे दी शरीरम, वम्दारे अपने द्यम सवदा 1 रहा उसकी पसे ठम्दारी आख देख सकती कान सुन सकते | उखकी दयासे वुम्दारी नासिका सघ सकती ओर जिहा साद्‌ ठे सकती दै उसके मसादसे ठुमदारे दाथ लेन-देन करते ओर पैर चर-फिर सकते दै उसे अनुग्रहे वम्दारी द्धि निश्चय करती है ओर मन

1 क्लदेवतता ब्राह्मणाः विन ना =-= भने उलकला काचिद्‌. धमे तु परमं सुलम्‌

सत विषयमे

मानुषचारणाः भरानिकान्‌ पूजयन्तीह

षये यददौकी ऊण्डधारकी कथा भी अवदय देखने योग्य

स्ट ल्ल = === नित्यं संनिहितो दव्युः कल्यो धर्मसंग्रहः (पु० सिं १६९; विक्रमाकं० चरि०

१३२ गरुडपुराण भम॑सारोद्धार, पञ्चतन्त्र ९४) ; पुलका इव धान्येषु पूत्यण्डा इव पक्षिषु सराका इव मव्य येषां धर्मो कारणम्‌

( महामारत शान्तिपवै ३२२ पन्चतन््र ९७) अतः धर्मका दी अभ्यास करना चाहिये धर्मेणापिहितो धर्मो धर्मसेवालुवर्तते धार्मिकेण कृतो धर्म धर्ममेवानुवर्तते ( महाभारत शान्तिपवं १९३ २८) जो तन-घनादिसे धर्माचरणमे सर्व॑था असमर्थं हो, उपे मी कम-से-कम मनसे दी सवके कल्याणकी कामना करनी चाहिये यह मानसिक धर्म कहा गया दैः जो सव धर्मोका मूल है मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः तस्मात्‌ सर्वेषु भूतेषु मनसा शिवमाचरेत्‌ ( महाभारत शान्तिपवं १९३ ३१) .

( म्रेषक---पण्डित श्रीजानकीनाथजी शभा ) |

सुख-दान्तिका एकमा उपाय धर्म

( ठेखक--खाभीजी श्रीचिदानन्दजी सरस्वती महाराज )

मनन कर सकता है अधिक क्या कैः त॒म्हारा जीवन दही उसकी अनुक्पाके ऊप्रर आश्रित दै रेतसे ईश्वरे धृणा होनेपर कैसे काम चञ्ेगा

|

धर्मके विषयमे भी यही बात दै ठम जिस विश्वम रहते

दोः उस ॒विखका खरूप जितना विदाक दै, उससे अनेक. गुना विशाल है खरूप ॒धर्मका; ओर उसके उदरके एक अंयमे तम्दाया यह विश्च सित दै तव पर एेते धर्मे धृणा रखनेपर तुम्हारा पालन-पोषण कैसे चटेगा |

धर्मका स्वरूपम इतना अधिक विशाल है कि उसको क्रंसी एक व्याख्यामे बोधा नदीं जा सकता | इस प्रकार

धनाब्यान्‌ कामिनः। ( महाभारत शान्तिपवं २७१ 1 ५६ )

[1 1

£ इुख-शान्तिका एकमा उपाय चम

११

अपनी-अपनी दष्टिके अनुसार विभिन्न विचारक धर्मकी अनेकों व्याख्या की दै 'धर्मः शब्दकी व्युसत्ति मी विभिन्न प्रकारसे की है जर्दौ दम त्ठे है, उसी कमरेका एक छायाचित्र यदि केमरेको ईशान कोणे रखकर ठे तथा दूसरा छाया- चित्र नैकऋत्य कोणसें रखकर तो ये दोनों छायाचित्र एक समान नदीं हौगे एकमे जदा दमाय रंह दीखेगाः वर्हौ दूसरेमं हमारी पीट दीखेगी इसी प्रकार जर्दौ-जरदौ खड़े होकर जिस दृष्टिसे धर्मका अवदोकन क्रिया गया; उसीके अनुसार उसकी व्युलत्ति करके लक्षण बनाया गया

अव धर्मशब्दकी कुछ व्युयत्ति देखिये अन्तिम अर्थ तो सवका एक दी है परंतु दमने जैसा पटे कदा है, उसके अनुसार जिस कोनेसे हम उसे देखते है, वैसा दी वह हमे दीखता दै (१) धिन्वनाद्‌ धर्मः। धिन्वनक्रा अर्थं हे घारणा या आश्वासन देना; दुःखसे पीड़ित समाजको धीरज देकर खुखका माग दिखाना इस प्रकारके आचारका नाम धर्म है ( २) धारणाद्‌ धर्मः धारण करना, दुःखसे वचाना भरीङ्ृष्णभगवान्‌ने जैसे गोवद्ध॑नको धारण करके व्रजको बचाया थाः उसी प्रकार जिसके आचरणसे समाज अधोगति- की ओर जाय ओर अपने उच आसनपर सिर रह सके, उसका नाम धर्मं है प्रकृतिका खमाव दी जल्के समान नीचेकी ओर जानेका है अर्थात्‌ यदि धर्मका अवलम्बन किया जाय तो सहज स्वभावसे प्रजा अधोगतिकी ओर घसीरती जाती है | आज धर्मका आश्रय चूट जानिके कारण दी हम दिन.प्रतिदिन गिरते जा रहे दै, यह प्रत्यक्ष दी है

मनुमगवानले धमके दस लक्षण बतलये उन धर्म॑पालन करनेका सारा खरूप जाता पुराणनि उसका विस्तार करके धर्मके तीस लक्षण बताये हैँ | धर्मके एकाध अङ्खका भी यदि समञ्चदारीके साथ पाल्नदहोतो दूसरे अङ्गका पालन अपने-आप दौ जाता है जते खायके एक पायेको खीचनेते रोष तीन पाये उसके साथ अपने-मप ही सिच जते हैः इसी प्रकार धर्मके पालनमे भी होता धरम-पान समन्षदारीके साथ होना चाहिये

केवल अव धम॑की एक सवंदेशीय ओर सर्वमान्य व्याख्या देखिये वास्तवमे ध्मका ज्ञान चचां या इस विषयके अन्था के अवलोकनसे ठीक तौरपर नदीं होता यह तो आचरणे लनेकी वस्ठ॒ दै जैसे-जेते आचरण धर्ममय होता जाता है, वैसे-वेसे दी धर्म॑का रदस्य समश्च आता जाता दै बोचनेते

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या चर्चां करनेसे तो केवल ऊपरी ज्ञान होता है जिसको

केवल जानकारी मात्र कह सकते हँ धर्मकी एक व्याख्या

इस प्रकार दै-- यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः धर्मः।

जिसके आचरणसे अभ्युदय तथा निःश्रेयसकी प्राति होती हैः उसका नाम धर्मं हे |

अव अभ्युदय ओर निःश्रेयसका अर्थं समन्नना चाये निःश्रेयसका अर्थं स्पष्ट हैः इसल्यि इसको पले समञ्च लीजिये ध्रेयसःका अर्थं है कल्याण जिस कल्याणसे वद्‌- कर दूसरा कोई वड़ा या अधिक महच्वका कल्याण होः उस सर्वश्रेष्ट या सर्वोपरि कल्याणको निःश्रेय कहते सर्वश्रेष्ठ कल्याण मोक्षः कदटाता है; वर्योक्रि उसको प्राप्त करनेके वाद्‌ ओर कुछ मी प्राप्त करना शेष नहीं रहता इस प्रकार निःश्रेयसका अथं हुआ स॒क्तिकी प्रिया मगव्पराधि अथवा जन्म-मृत्युरूपी बन्धनसे निच्रत्ति अतएव धर्म॑का एक लक्षण यह हुआ करि जिसके आचरणसे भोक्षकी प्राप्ति दो]

(अभ्युद्यःका अर्थं केवर यदी है किं शरीरके निर्वाहके साधन सुगमतासे प्राप्त हौः विलखसकी सामग्री या शरीरको लाड ठ्ड़ानेवाठे वैभव नहीं मनु महाराजने अव्यन्त संक्षेपं बतलाया है कि धर्मका आचरण कैसे करना चादि यथा--

अर्हिसा सत्यमस्तेयं शोचमिन्द्रियनिग्रहः

एतद्‌ धर्म॑ समासेन चातुर्वण्यंऽब्रवीन्मनुः

पहा है--अदिसा दिंसाका स्थ अथै है शरीर ओर प्राणका वियोग करना; परत इसका सूक्ष्म अथं दै- मनसाः वाचाः कर्मणा क्रंसीको कष्ट देना अपने शरीरसे किंसीको पीड़ा पर्हुचानाः वाणीस मृघ्युकी धमकी देना अथवा ेसी कठोर वाणी वोढना जिससे क्रंसीके मनपर आधात पहुचे ओर मनसे किंसीका विनाश या बुरा चाहना, यह भी हिसा दी है ेषी किसी भी हिसासे दूर रहनेका नाम दै (अहिसा- का पालनः

दूसरा तच्वहै--सत्य एेसा कौन सम्प्रदायः जो सत्यवी आवक्यकताको स्वीकार करता भके ही कदाचित्‌ सत्य वचनपर कोई बर दे; परंतु असत्यका आचरण करनेके ल्यितो कोद भी सम्प्रदाय नही कहता अतएव सत्य अथात्‌ सत्यका आचरण ओर असत्यका त्याग, यह्‌ सब्र सम्प्रदायोके ल्यि सामान्य धर्म है |

९२

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% धर्मों रश्चति रक्षितः #

तीसरा है अस्तेय | स्तेयका अर्थ है चोरी करना | मालिकिकी अनुपसितिमे या उसकौ नजर वचाकर उसक्री वस्तु अपने उपयोगके च्वि लेना, यह साधारणतः चोरी कहलाता दै उसकी उपथितिमे वखपू्ैक छीन ठेना ष्ट कहटाता है |

चोरी ओर ट्टका वहत साधारण अर्थं हआ परतु जो व्यापारी एक मन माय्का पैसा ठता ओर कम तौर्ता है, अथवा दस गज कपडेका पैसा ठेकर कम नापकर देता दै, बढि मालका पैसा लेकर घयिया | देता हैया निलाछिस चीजमे दूसरी चीज माकर देता है तथाजो कारीगर पूरा वेतन लेकर निश्चत कामको ईमान-

दारीसे नदीं करताः जो अधिक्रारी या नौकर घृस.स्छित छता है | या लेनेकी इच्छा करता है--सारंशा यह है करि जो लोग अपने व्यवदहासमै पूरी ईमानदारी नदीं वर्तते, जो

अपनी आवश्यकति अधिक संग्रह करते हं तथा जो सेवक अपने ऊपर सौपा हा काम विश्वासपूरैक नदीं करते, वे समी चोरात्‌ या छ्ेरे इस प्रकारकी क्रिसी मी चोरी दुर रदनेका नाम (अस्तेय.तश्ना पालनः कटलाता है इस अस्तेय-सिद्धान्तके विरुद्ध कोई सम्प्रदाय हो सक्ता है, यद मे नदौ मानता

चौथा दै शौच शौचका अर्थं पवित्रता इसमे एक तो है--रारीर्की पवित्रता थात्‌ दशारीरको खच्छ रखना इस वातकरो तो पशुपक्षी भी समञ्चते दै; फिर मनुष्यको तो पसा करना ही चादियेः इसमे क्या नयी वात है दूसरी है मनकी पवित्रता मनको दुष्ट संक्परसे दूर रखना चाहिये मनम क्रिसी मी प्रकारका बुरा विचार अनि दीन पावि, उसको एेसा पविन्च वनाना चादिये शोचके विषयमे मी किसी भी सम्प्रदायका कोड पिरोध नदीं होता; क्योकि तन-मनकी पविन्रताके च्वि दही उसका निर्माण होता दै ओर इसीके च्यि सारे कर्मकाण्डकी योजना बनी होती है

पचिर्वो दै इन्द्रियनिग्रह वास्तविक स्वतन्त्र मनुष्य | कौन है !--जिसका अपनी इन्दियोके ऊपर पूरा कू दैः ` दूसरा कोई नदीं स्वतन्त्र देशम रदनेसे शरीर मठे दी स्वतन्त्र कदलाता हो; पर्व॒ वह मनुष्यः जो इन्द्िर्योका गुलाम र, है वेजैसे चखाती ईः वैते दी पडकरे समान चट्ता दै तो वह खतन्त्र मनुष्य नदीं हैः बल्कि गुलाम भी वदतर है इस , अरक्रार इन्धिय-निग्रद भी प्रत्येक सम्प्रदाय क्रिसी-न-त्रिसी सपमे माल्य टना चाद्ये ओर इस कारण कोद मी सम्प्रदाय इन्दिय-निग्रदकी रि्षाका विरोध नदीं करता

इस विवेचने सष्ठ देखा जाता दहै करि कोड्‌भी सः | था संख्याः अथवा समाज या व्यक्ति व्रिना धर्मक दी | सकता राज्य असाम्परदाधिक दो सकता दैः परु बह धर्मनिरपेक्ष या धर्मविदीन ह्ये ही नदीं सकता रज्र च्वि भी उसके धर्म दै ओर जर्ौतक उसक्रा पाठन होता है, वर्दोतक वह प्सुराज्यः कहता है राज्यके धम रामायण तथा महाभारते विस्तारपूर्ेक च्वि है जिसको जन। टेना मारती राज्यतन्तक प्रत्येक सभ्ये खरि आवद्यकं आज जो दुःखके बादल हमारे ऊपर डरा रे है, उनको विश्वयुद्ध दूर नां कर सकता एेटम वमः दाइङ्धोजन वम, को्छाट वम अथवा इनसे मी भयंकर शाख उनको दूर नही कर्‌ सकते अनेक प्रकारके कारलानोकी स्थापना दुःख दूर नदीं दता संतति-नियमनके साधनोंदयारा माधी प्रजाका बिना करनेसे भी दुःख दूर नहं होगा विपुल धनराश्चि तथा| पुष्कर भोगसामग्री मी दुःखके वादको छिनन-भिन्न नही | कर सकेगी चन्द्रः मङ्ग या शुक्रतक पर्ुचनेते भी टुःखका अन्त दोगा दुःखके वादको दूर के सुल | शान्तिक खापना करनेका एकमात्र उपाय है--धर्म | तक पुनः धर्मकी संखापरना नहीं होती, तव्रतक दूसरे क्रि भी उपायसे इन दुक बादस्को दूर करके सुख-दाति नहीं प्राप्त की जा सकती | अंग्रजोके अनेके पूर हमारे यदौ इश्वर ओर घरे च्यि पूणे स्थान था। उनके आनेके वादं हम उनकी | आकषक मोगसामग्री देखकर न्ध हो गये ओर धीरे |. धीरे ईश्वर ओर धर्मकी ओरसे उदासीन ओर बेपरवाहं हेते | खगे दम जेपे-जेते धर्मविमुख होते गये, वैते-वेसे दी | दमारे दुःख वदते गये अव दुःखकी कोई सीमा नदौ रट गथी है आज प्रजा दाने-दानेके च्वि मर र्दी है ओर अनीति तथा दुराचारका साम्राज्य जम गया दै; क्योकि ईश्वर ओर धर्मे टिम हमने कोई स्थान नदीं कला है || इन दोनेकरी अवदहेलना करके इन दोनोको परूणतः निकाठ | पका है ओर हम इनका आदर विच्छुञ दी नँ करते हमने देखा कि धरुकी पुनः स्थापना क्रिये वरना इस | भर्यकर दुःखे वचनेका दूसरा कोई इठाज नदी दै | अधमं ओर उसके तच्व--अनीति, दुराचार आदि ब्त | जोर प्कडगे ओर अपनैसे जव वे कावूमै नदीं अवे | तव भगवान्‌ अपने वचनकरे अनुसार अवतार लेकर धर्मकी | ख्ापना करेगे ओर इस प्रकार दुश्ौका संहारं करै

1

‰% धसर अविनाशी तच्च है # ~ ~

धर्मक संखापना करेगे तथा स्वयं अविनाशी दोनेके कारण अवतारक्रा काम पूरा दोनेपर अदृश्य हो जवेते यँ कुछ ॒ज्ञानल्वटुर्विदग्ध मानव प्रन करगे किं क्या भारतवर्षं दही ेसा पापीदहै१ ओर क्वा यां बहुत अधिकं पाप होता है कि जिसका निवारण करके स्यि मगवानकतो अवतार छेना पड़ता दै सरोपः अभेरिका, अग्रिका, आ्टरूखिया, न्यूजीटैड आदि देम मगवानूको क्यौ नहं अवतार ेना पड़ता इसते सिद्ध होताहै कि पापाचरण केवल भारतवर्ष दी होता ।› इसक्रे उत्तरम इतना दी कहना कि भगवान्‌ अवतार धारण करते है--धर्मक्रौ संखापना कनके चि ही भारतकरे सिवा दूसरे देशोयं धर्मको खान नहीं ह्येता; क्योकि वदँ मानव-जीवनके च्वि कोई सुन्दर मोजना नह है ज्र धर्म होता हेः वहो जीवन योजना अनुसार चख्ता वह योजना दै धर्म अर्थः काम ओर मोक्ष-इप चतुर्विघ पुरुपार्थका सम्पादन करनेको इस योजनाको पूरी करणेके छिव दूसरे अनेक सिद्धान्त इसके साथ जुड़े दए दै जेषे--( १) कर्मकट्का सिद्धान्तः ८२ ) उसमे उलन पुन्जन्मका सिद्धान्त, ( ) उसे निकटी हई चातु्व्व्यवस्याका सिद्धान्त, (४ ) ओर उसकी भूमिकामें ब्रह्मचर्थं आदि चार आश्रमोका सिद्धान्त्‌

हसते सष्ठ दो गया करि उन देशम ध्म॑क। खान नदीं हैः

१३ तव किर धर्मका हास कैसे दोगा ओर फिर उसकी पुनः संखापनाके चि भगवानूको अवतार क्यौ धारण कसना पड़ेगा

आहारनिद्राभयमेधुनं न्च सामान्यमेतत्पद्ुभिनैराणाम्‌ धरो हि तेषामधिको विषो

धर्येग हीनाः पञ्युभिः समानाः

आदारः निद्रा, मव ओर स्रीसङ्ग- ये चार वाते पद्युभं ओर मनुर्योमं समानरूपे होती दँ मनुष्यमे यदि कोई विरोपता है तो वह धर्मी है अत्र जिस दें अथवा जिस समाजय ध्मं॑नदीं होताः उसको शास्र पञ्युः कते दै पके स्थितो ईशवरने एक दी नियम व्रनाया हे क्रि जन्म ठेना ओर प्रारन्धक्रे अनुसार सुखदुःख भोगकर मर जाना इन निकट योनिम जीवकी उन्नतिकरे च्यि कोद साधन नद्धं होता, अतण उनके चिवि भगवानक्रो अवतार नां केना पड़ता उनका जीवन तो भगवानके बनावे हुए निवमके अनुसार चख्ता दी रदता है ओर इस कारण भारतवर्षैके सिवा दूसरी जगह कीं भगवानक्तो अवतार धारण कंरना नदीं पड़ता

शान्तिः शान्तिः शान्तिः

धर्मं अविनारी तख दे

( एक महात्माकरा प्रसाद्‌ )

धर्म मानयक्री खोज है, उपज नदीं 1 खोज सदैव अविनाशी तचकी होती दै इस दिते धम अपरिनाशषी तख है भोतिकवादकी दृष्टिते धमं प्राक्तिक पिधानः अध्यात्मवादकी दष्िसे निज तिवेकका प्रकाश तथा श्रद्धापथ- की दषटिते प्रभुका मङ्गल्मय विधान है धमं धारण क्रिया जाता दै अर्थात्‌ धर्मी धमीक्रि साथ एकता होती दै धर्मके धारण करनेमे मानवको भयरदित चिर॒ शान्ति मिकती है धर्म॑ मानवको रागरदित करनेम समं है रागरदित होते दी साधक खतः योगवित्‌ तथां तखवित्‌ एवं प्रेमवित्‌ हो कृतक्र् हो जाता है इस कारण धम सवर॑तोमुखी विकासकी भूमि है

धर्म सर्वप्रथम मानवको मरह प्रेरणा देता है करि परिवेक- विरोधी तथा सामर्ध्यविरोधी कार्यं मत करो सामथ्यं तथा

व्रिवेकके अनुरूप क्रिया हुआ कायै कर्तौको जन्म-जन्मान्तरके विद्यमान रागसे रदित कर देता दै यद धर्मकरा बाह्य रूप है नवीन रागकी उत्पत्ति होः इसके लिये ध्म निज अधिक्रारके त्यागकी प्रेरणा देता है ओर पिर मानव रागरहित होकर अव्यन्त सुगमतापूर्व॑क मानव-जीवनके चरम लक््मको प्राप्न कर ठेता है

रागरदित भूमिम दी योगसूपी वृश्च ल्गता है ओर योगरूपी वृक्षपर दी तचक्ानरूपी फल क्गता दै, जो प्रेमरूपी रसते परिपूर्ण हे

शक्ति, मुक्ति ओर भक्ति धमते दी उपलब्ध होती धर्पात्माके जीवनम सतत सेवा, त्यागः प्रेमी त्रिवेणी लहराती है सेवासे जीन जगत्कर लिम त्यागसे अपने च्थि ओर प्रमसे सर्व॑समथं प्रुके स्यि उपयोगी होता है धके

`~ धारण क्रिये विना जीवन उपयोगी नहीं होता अनुपवोसी जीवन किसीको अभीष्ट नदीं है ओर उपयोगी जीवनकी माग सदैव सर्वत्र सभीको रहती है इस दृष्टिसे धर्मता सभीको समावते दी प्रियदै। धमात्ामे जगत्का चिन्तन नदीं रहता, अपितु जगत्‌ धमात्माकी सदेव आवश्यकता अनुभव करता कारण कि धमीतमासे सभीक्रे अधिकार सुरक्षित रदे है ओर वहं स्वयं अधिकार-लल्सासे रदित हो जाता दैः यह्‌ निर्विवाद सत्य हे प्रयेक मानवे धर्मका ज्ञान वि्यमान ह; पर उसकी खोज वीतराग महापुरुष ही कर पाते रागरदित दोनेकी स्वाधीनता मानवको जन्म-जात प्राप्त है | कारण करि उसे उसके रचयिताने विवेकरूपी प्रकाश तथा बुद्धिरूपी दृटिं एवं भावराक्ति प्रदान की दै | धमे मानवको भिकले दरक अर्थात्‌ जो प्राक्त दैः उसीके सदुपयोगकी प्रेरणा देता है इस दृष्टि धर्मात्मा दनम मानव सव॑दा स्वाधीन है यद्यपि धर्मको धारण करना सटज तथा स्वामाधिक दे? फिर मी मानव अपनी दी भूद्वै अपनैको धमस च्युत कर लेता दैः | जो विनारका मू दै अपनी भूल्का ज्ञान ओर उसकी निच्त्ति आवद्यक दो सकती दे; पर कव जव मानव सव ओस्से विमुख होकर अपनी ओर देखे अपनी ओर देखते दी उसे अपनी खचि तथा आवद्यकताका बोध दोगा खचिकी निदृत्ति ओर आवदयकताकी पूति अवद्य दोती दै-यद अविचल सत्य है रुचिकरा उद्गम एकमात्र पराधीनताको स्वीकार करना दै पराधीन म्राणी रचिरभे आबद्ध दो जाता दै “पराधीनतासे पीडित होनेपर ` जव मानव स्वाधीनताकी जआरयश्चकता -अनुभव करता तवर _अपने-आप उचिका ` नारा देने ख्गता है सवार रुचिका ना होते ही खाधीनताकी सांग अयने माप पूरी दौ जाती हे साधीन मानव दी धर्मक वास्तविक तत्वका अयुभन करता है पराधीनताको सदन करना ही ध्मसे 8 दैः ।, जिति किसी ग्रकारकी पशधीनता खुटन दात» ची -जगतके प्रति -उदार तथा ग्रसुके. प्रति प्रेमी देता दे सखाधीन होने- की खाधीनता मानवको अपने स्वयितास प्रात दै प्र यह रस्य तभी स्पष्ट दोता दै जवर मानव वका दुरुपयोग + विचचां अनादर नदीं करता ओर अपने तथा जगतके रकादाकमे अविचल शरदा स्ता स्वाधार तथा सर्वसम्थं है; इतना दी नदी, वह समीक है जो उसे खीक्रार नदीं

&.

# धमो रश्चति रक्षितः #

उत्पत्तिरदित अनादि अविनाशी नित्य तख अवदय है जो

अविनारीं दै, वदी अनन्त दै जो अनन्त है, वदी अखण्ड

करते उनका वह उतना ही हे, जितना उनका दहै जो उसे स्वीकार करते हँ | पर यह तभी स्पष्ट दोता दैः ज. मानव धर्मको धारणक्रर रागरदित दो जाय

निज ज्ञानका आदर मानवको वल्के सदुपयोगकी तथा | अलोकरिक दिव्य चिन्मय अविनायी जीवनकी प्रेरणा देता ज्ञानविरोधी कायं करते हुए धर्मक तथ्यको जानना | सम्भव नहीं है राग ओर क्रोधने दी हमं धर्मे विमुख करिया है दूसरके अधिकरारकी रक्षा विना क्रिये रागका नाद नही होता ओर अपने अधिकारका त्याग करनेपर दी मानव करोधरदित दोता है "रागः जडता; अमाव तथा नीरसतां आबद्ध करता दै ओर (क्रोधः कर्तव्यः निजस्वरूप तथा प्रकी विस्परतिमे देत है अतएव राग तथा क्रोधका अन्त करना अनिवायं हैः जो एकमात्र धर्मके धारण करनेसे ही सम्भव | हे कर्तव्यकी स्मृति ओर उसके पान करनेकी सामथ्यं करोधरदित दोनेपर खतः जाती दै कर्तव्यनिष्ठ होते दी मानव देदातीत जीवनम प्रवेद पाता दैः जिसके पाते ही जीवनं परम ्रेमसे परिपूर्ण हो जाता है यह विकास | धर्मात्माका स्तः हो जाता है इस दृष्टिते धर्मका धारण | करना मानवमाचके चयि अत्यन्त आवश्यक दै धर्मात्मा प्राप्त परिखितिका सदुपयोग करके सभी परिख्थिति्से अतीत दिव्य चिन्मय जीवनसे अभिन्न होता है अतः प्राणौके रते हुए ही वत॑मानम भूलरदित हो धर्मको धारण करनेका अथक प्रयास करना मानवमात्रके स्यि परम अनिवार्यं

की हुई भूल दोहरानेका, वतमान निदौषताकौ सुरक्षित रखने एवं मानवजीवनके चरम लक्ष्यको प्राप करनेका टद्‌ संकल्प तथा ब्रत स्वीकार करना आवश्यक दै तरतके पाटन करने आयी हद कठिनाइ्योको दर्षपूरंक सदन करनेकी प्रेरणा धर्म देता दै कठिनाइयोके सदन करनेषे आवदयक शक्तिका प्रादुमाव होता

अपने लक्ष्यसे कभी निराश नदीं होना चादयः कारण किं रक्ष्यकी प्रा्िके चि दी मानव-जीवन मिला दै

टय 3 ~

ठ्षयते निराशा तमी आती हैः जव मानव प्रमादे निज `

विवेकका अनादर तथा बल्का दुरुपयोग एवं सर्वसमं प्रभुम अश्रद्धा करता है धमात्मा कभी निज विवेककां अनादर तथा वल्का दुरुपयोग एवं सर्वाधारं अश्रद्धा नही करता यद्‌ सभीको मान्य दै किं प्रत्येक उत्पत्तिके मूटमे

1 १101

# हमारा सचा साथी कौन है ? ध्म १५

है उसकी महिमाका कोई वारापार नदीं है; कंठ अपने लक्ष्यकी विस्मृतिसे मानव उसमे अथिचल आस्था नहीं कर पाता मोगकी रुचि, भोगकी मोग, तच्वकी जिज्ञासा तथा प्रिय-लल्सा ( प्रेमी भूख ) मानवको अपनेर्मे स्वमाव्से प्रतीत होती दै भूटरहित होते दी भोगकी रुचिका नार

जिज्ञासाकौ पूति एवं प्रेमी प्राति खतः होती दै योगसे सक्तिः बोधसे सुक्ति तथा प्रेमसे अनन्त रको पाकर मानव अपने चरम लक्ष्यको प्राप्त कर ठेता है | अतः लश्यसे निराश होनेक्रे समान ओंर कोई भूल नदीं दै धर्मात्मा सदैव अपनी ओर देखता ओर अपने र्यकरो अनुभव-

हो जाता है जिसके दते दी योगकी उपरन्िः कर भूलरदित दौ सफठ्ता परा करता वह धुव सत्य है ररर ----- हभ सं ञी सा (न 0 धून हमार स्रा साथा कन

~ ~

ठेखक--परमाथं निकेतनके संत खामीजी श्रीभजनानन्दजी महाराज )

हमारा सच्चा साथी कोन दैः इसपर विचार करनेपर ज्ञात होता दहै क्रि प्राणीका सचा साथी धर्म दीदै। कटा भी दै-- धनानि भूमौ पक्वो हि नारी गृहद्वारि सखा दमखाने पररोकसार्भे धमौलुगो गच्छति जीव एकः

गोष्डे

देहश्चितायां

अर्थात्‌ मनुष्यके पाञ्चमोतिक शारीर छोड्नेपर उसका धन भूमिम या तिजोरी पड़ा रद जाता है) पर्य पशुाल्म वधे रह जाते हँ | परम प्यारी स्री योकाग्निसे विहर धरफके द्रवाजेतक साथ देती है मित्र तथा परिाखगं इमशानतक तथा शरीर, जिसका इतना पाठन- पोषण क्रियाः चितातक्र साथ देता है परलोकमार्ममिं केवछ एक धरम ही साथ जाता है

महाभारतके स्वगारोदण-पर्वम छा है किं जव पाण्डव द्रौपदीके साथ सदेह खर्म जाने लगे, उस समय उनके साथ एक कुत्ता भी चछ रहा था। चल्तेचल्ते प्रथम द्रोपदी हिमाख्यके वमे गल्कर गिरने र्गी, तव भीसने युधिष्ठिस्से कदा कि दमरोगोकी चिरसङ्खिनी परम सुन्दरी द्रौपदी गिर रदी है। धर्मराज युधिष्ठिरे पीठेकी ओर विना देखे हुए दी जवाव्र दिया कि “गिर जने दो, उसका व्यवहार पक्षपातपूरणं था; क्योकि वह हम सवस अधिक अनते प्रेम करती थी ।' एेसा कहते-कदते आगे चलते गये पीेको देखा मी नही; क्योकि धर्मानुरागीको पीछे नदीं देखना चादिये- जिस प्रकार मोटर इाइवर मोटर चलते समय पृष्टमागकी ओर देखते हए मोटर चलाता है; क्योकि ठेसा करनेसे दुषैटना दोनेका भय रहता दै किंचित्‌ दूर दी चक पाये थे करि मदात्मा सहदेव ठडखड़ाने रुगे भीमने

कदा ष्दादाः परम प्रिय सदोदर सदेव गिरना चाहते दै; इन्दौने तो अहंकाररदित होकर सदैव ही हमलोगो- की रेवाकीदै, वे क्यों गिर रहे ¢ युपिष्ठिसे कहा - (भाई सहदेवको विद्त्ताका अभिमान था; वे अपनेको संसारम सव्रसे वड़ा विद्वान्‌ समञ्लते थे ।' एेसा कहते हुए व्रिना पीछे देखे रेप भाईके साथ आगे चख्ते रदे इतनेमे भाई नकरुख्को लडखडाते हए देखकर मीमने कदा--“ नकुल भी साथ छोड्ना चाहते है| धर्मराज युधिष्ठिने कदा-- उसे अपनी सुन्दरताका अभिमान थाः इसय्यि इसका पतन द्आः- एेसा कहते हुए विना पीठे देखे धम॑राज युधिष्ठिर आगे बदृते चे जा रेये।

इतनेमं अर्जुनक गिरनेका समय उपथ्ित हुआ मीमने कहा करं ष्दादाः गाण्डीव धनुषका धारण करनेवाला दवेत बरोदधौवटे रथपर भ्रमण करनेवाला अर्जुन गिर रहा दे ।› युधिष्ठिरे निना पीछठै देखते हुए ही जवाब दिया--“गिर जाने दोः उसे अपनी श्ूरवीरताका विरोष अभिमान था | अन्तम उस दहिमप्रदेशसे महाबली भीम मी गिरने ल्गे तो उन्होने पुकारकर कहा--ष्दादा, मैं मी गिरा जाता दरू रक्षा करो ।' युधिष्ठिरे कदा--^तू तो वडा पट्‌ था तज्ञे अपने बल्का अभिमान था करि संसारम मुक्षसे वदृकर कोई बली नहीं है; अतः तेरा पतन द्यो गया ‹संसुत मूरु सूर्प्रद नाना 1 सकर सोक दायक अभिमाना ॥› विना पीछे देखते दए महाराज युधिष्ठिरे अपना चलना बंद नदी किया उन्होने देखा फ्रि जो कुत्ता प्रारम्भम हम मिला था, वह साथ रहादै। उषे साथ क्ते हुए आगे बद रदे थे करि उन्दै स्थके साथ महाराज इन्द्रदेवके दर्शन हुए महाराज इद्रे का कि ‹्थपर सवार हकर सदेह इन््रलोकको चच्यिं }› महाराज युधिष्ठिरे कहा किं धयह्‌

| शद # धमो शक्ति रक्षितः # |

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छतत दमारे साथ आयादै; प्रथम इसे रथपर चटाइये, तन चदूगा | इन्दरने कदा--स्व्गमे कुत्ता नदीं जा सकता ।› महाराज युधिष्ठिरने कदा--ध्यदि कृत्ता नहीं जा सकता तोम भी नहीं जगा, क्योकि यह हमारी सरण्मं आया हे सभी साथ छोड गये; परंतु इसने साथ नदीं छोड़ा; अतः इसे छोड़कर भै खर्गमे नदीं जाना चाहता } क्योकि--

सरनागत कह जे तजहिं निज अन्त अनुमानि \ ते नर पौवर पापमय तिन्टहि बिरोकत टदनि॥ इसके अनुसार शरणागतकी रक्षा करनेवाछेको भी स्वर्गकी प्राति नहीं होती, एेसा नियम दै भीतं भक्तं नान्यदस्तीति चार्त प्राक्ठ क्षीणं रक्षणे प्राणङ्प्सुम्‌। प्राणत्यागादप्यहं नैव मोक्त्‌ यतेयं वै नित्यमेतद्‌ व्रतं मे॥ अ्थौत्‌ भयभीत भक्त जिसे करिसी अन्यका आश्रय हो, नि्ैलताके कारण शरणमे आक्र अपने प्राोकी रक्षा चाहता दहै, रेसे शरणागतकी रक्रा अपने प्राणोका उत्खग करके भी करना च्हरुगा, एेसा मेरा परम व्रत दै जव धर्फ्यज युधिष्ठिरने इस प्रकार इन्द्रसे कदा, तव जिस धर्मने कुत्तेका रूप धारण किया था, वह मूर्तरूप होकर सामने उपस्थित होकर कहने ल्गा- भ्म त॒म- पर बहत प्रसन्न द्रुः ठमने अनेक कठिनाइरयोको स्ञेटते हुए मी धर्मक परित्याग नर्द किया |"

अतः धर्म ही हमारा इस रोक तथा प्रटोकका साधी है। एक कवि कटता दै--

अगवान मेसा जीवनः सदुचमेके र्थि से\ हो निदमी तो केकेन) उपकारक ल्यिदहो॥ सुन्दर स्वभाव मेस इदमनका मन शि से\ वह देखते ही कह दे) तुम प्यार स्यि लो] हमसे बिवेक जम, दम धमेको मूकं अहि दमण नेया महवसे स्थि छे॥

बुद्धि ओर तनसे स्व॒ जातका भस हो स्य हा

मन्‌, नष्टे दमण यह लर तरूवारके

नीतिकारने एक॒ र्खेक बहुत छखन्द्र किलि है

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7 =-= =-= | विद्या सिर प्रवासे भाया भित्र गृहेषु व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो सिन्र शृतस्य अथात्‌ परदेर्म मनुष्यकरे ल्वि विद्या दीमित्र ङक

यानी उसके पास कोई दस्तकारी आदिदहैतो लेग उसका आद्र करेगे घरमे आज्ञाकारिणी स्री मित्र दहै। रोग होनेपर ओषध मित्र होगी तथा मरसनैवख्के स्मि एकमात्र धमं ही मित्र दै अतः धर्म ही हमारा सच साथी है| '्धर्मङ्कके श्रोतागण कैगे कि धर्म॒क्या तो धर्मको वताकर धर्मका सार कहते दै -

(| श्रुयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्‌

आत्मनः प्रतिद्टानि परेषां समाचरेत्‌ धर्मकरा सार सुनकर उसको धारण कसा

चाये धर्मका सार है कि अपने प्रतिकूल आचरणका

अभ्यके ल्यि प्रयोगन करे] दूसरोके साथ वदी व्यव्रहार करो, | जो स्वयं चाहते हो| यदि आप चाहते दै कि हमारी वहिनवेटीको कोई बुरी निगादसे देखे तो आपको मी | चाद्ये करि आप करिसीकी बहिन-वेरीको बुरी निगाहसे | देणे | यदि आप दृसरेका बू बोलना पसंद | नहीं करते तो आपको भी क्रिसीके साथ चुट व्यवहार | नहीं करना चाद्ये यदि आपको अपनी वस्तुकी चोरी

जानेपर दोताहै तो आपको भी दूसरौकी वक्री | चुरानेका क्या अधिक्रार दै यदि बाजार मिखवटी वस्तुक | खरीदनेसे एेतराज है तो आप भी मिखावरी वस्तु क्रिसीको देँ] अर्थात्‌ जेसा व्यव्हार आप दूसरसे चाहते दै, वैसा दी व्यवहार दूसरोके साथ करं | जिस व्यवहा | आपको कष्ट होता दैः वैसा व्यवदार दूसरके साथ करं |

खतम जो आप बोयेगेः वही आपक्रो भिकेगा | इसी प्रकार गीताजीके अध्याय १२३ रटोक के अनुसार, समी प्राणि्योके दारीर खेतकरे समान उनके साथ जैसा व्रवहार करगे, वेसा ददी आपको प्राक्त होगा | यदि आप प्राणिमाव्रको सुख दंगे तो आपको उसके बदले. सुख मिलेगा ओर यदि दुभ्ठ दँगे तो दुः्ल मिलेगा | यही धूर्मका सार है।

न्यार वेद छः शाखे वात भरी दै दोय ट्ख दीन्दं इख शेत दे" सुख दन्द सुख देय

=-=

पर्मद्क्तः प्रतंतास्‌ ` ३७

धगरः

प्रवर्तता प्रतता

( ठेखक ---अनन्तश्री स्वाभीजी श्रीअनिरुडाचायंजी वेकटाचार्य॑त्री नद्वाराज )

दिक संहितार्ओंः व्राद्मण-गरन्थोः आरण्यको एलं उपनिषदो अभ्निः-तच एवं 'सोमः-तच्यकी यज्ञमयी परस्पर अनुस्यूत ) अवाक ध्रह्मः शब्दे अमिदित किया गया है | प्रातिद्याख्य ( वेदिक व्याकरण ) ब्रह्म-शन्दकी निरुक्ति भी धव्रिभसिः धातुमे इस प्रकार की गयी दै विभिन्न करायमालार्थको धारण करनेके कारण ब्रह्म ध्रहा दान्द्मे अभिरित दै यातपथव्रादाणर्मे व्रह्म तत्को ध्यज्ु त्व तथा “आकाशतचच भमी कदा गया दँ | यदी तच विश्वगत सव द्रव्यो ( धर्थिवों) एवं सव गुरो (धर्मा) का पू कारण दै च्रहाः अधवा वज्ञ अथवा “आकारः तके आग्नेय भागते द्रव्यो धर्मि ) तथा सौम्य मागमे गुणो ( धमं ) की उत्ति होती है अधुनातन दानिक एवं तान्विक परियापरामँ गुण-तच्व अथवा ध्म-तच्कौ शक्तिः-तच्च कहते अतः गुणः धर्म ओर सक्ति-- तीनें

अभिन्न द| © शरमं सन्तन तत्तत्‌ पदार्थकी स्वसूपनिरूपिका ( ख-खसरूय-

निष्पादिका ) सदजा रक्तिं ( धमं अथवा गुण ) दी तेत्‌ पदार्थोका सनातन धर्म है यदी धर्म तत्तत्‌. पदार्था रश्च मी है| इस स्वश्सनिष्पाद्क धर्मक क्रिसी भौ कारणव अभिभूत अथवा उच्छिन्न हो जानेपर वरिश्चका कोई भी पदां स्वस्वरूपे प्रतिष्ठित नदीं रहं सकता स्वरक्षक धर्मैः अभाव बह सदाकरे च्वि वरिटीन दौ जाता है धर्मक इस स्वरूपका दर्शन कराते हए आस्तजन कहते ईै-- (धमो हि वीर्यं ध्यते हि धर्मो तो धारयते हि रूपम्‌ धर्म एक रक्तिं है ' स्वरूपलाभ तथा श्वरूपकी रक्षके स्यि पदार्द्रारा धृत हनेमे वहं धमः है पदार्शरह्यारा धृत धर्म ही पदार्थोक्रा रक्षण करता दैः अतः वहं विश्वकी प्रतिष्ठा दै ध्धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्टा एवं “धर्मो रक्षति रक्षितः आदि आपत-वचनोका मूढ उपयुक्तं विज्ञान ही है। विश्वगत ये शकतिर्यो षदार्थोकी सदभाव्रिनी हेोनेसे नित्य थतः धमकर नित्य ( सनातन ) कदा गया दै कदाचित्‌ यद सखसूयका निरूपक धमे तिरोदित अथवा

घ० अं० २--

उच्छिन्न टो जाय तो पाथं कथमपि अपनेकरो प्रतिष्ठित रस्वर सक्रता--धम् एव हता दन्त

धर्मो सामान्प-विषेष्‌ रूप

“निर्विेषं सामान्यम्‌, एवं निःसामास्यं विदोषः" त्यायदर्खनकरे इन दो नियमेकरे आधासर यदे सिद्धान्त स्थिर करिया गया है क्रि क्रिंसी भी सामान्य धर्मकरा विकास उसके व्रिरोषर सपय दही सदया हो सक्रेता है। विरोष धमकी खिति धी सासान्य धर्मक आश्रय चिना अडाक्रय दी नही, असम्भव बरक्नत्वर्प सामान्य ध्म॑की उपरन्ि वरस्व, शिंदापाल्व एवं निम्बल्व प्रत; बयत एवं निम्बस्य आदि साघान्व धर्म -न्र्षखमे आस्कन्दित यस्म द्यी होगी अतः धर्मोक्रा सामन्य ण्यं विशेष

उययात्पक ल्प है पानयेति विष्‌ रूप

ते नियसेकि अदल्म्वनपर विचारः नृनरत्नं समपादा; सम दमादि राणः स्पघा.असू्ादिदोवााव, धृति, क्षमा, दम, अस्तेयः शचः ही ( अकार्ये निषटृनति ) विध्या, सत्य

गृलदितकारी किया ); अक्रोधः अनसूया ( परगुणे प्रसन्न हयेन); भाद्गल्य ( विश्वकी कल्याणकायना ) अनासस (किसीको कष्ठ पर्टुचाना ) अकरापण्यः अस्प्दाः दानः रक्षा, सेवा, दितवादिता, स्वाध्याय, माधुर्यः सधुरमापरणः श्रद्धा, आस्तिक्य, अदम्भः मेत्रीः कर्णाः मृदिता, उपेक्षाः विनय, एकपलीव्रतः पातित्रत्यः गुरुभवा, रषट्येवाः अभयः व्राह्मण, श्त्रियल, वैश्यत, शूद्र, पिः मातर्लः पतित्व, पतनीत्व, पुत्रलल, भ्रातृ, सेवक, भनापतितवः सेनिकल्; यजत्वः उपासकः अर्दिसा, व्रह्मचयं, अपरिपर तपः द्रपणिधान, गादहस्थ्य एवे संन्यास आदि मानबताके विरोषसूप दै सानवताका जव भी दशन दोगाः तन उसके विोषरूप पित्र; मातृत्व, करुणा, मैनी एवं समुदिता आदिते रूपमे दी होगा अपने विशेष सूपौमे अनवच्छिन्न मानवता कदापि क्रचिदुपि उपरब्ध॒ नहीं दोगी मानवता छोडकर उवै, विरोष स्पौ---दयाः क्षमा, भौच पलं अन्या आदिते, दसन मी कदी भी नहीं हैमे

|

» सिस

घ्‌ [> > मा रश्चात राक्चतः

मानवताके विशेष रूप सनातन ओर विश्व-व्याप् है

मानवताके विष रूप तुष्टिः पुष्टि, स्वस्ति, सम्पत्ति, धृतिः क्षमाः रति, मुक्ति, दया, प्रतिष्ठा, कीतिं एवं क्रिया आदि विश्वधारक प्रकृतिके अंश टोनेसे सनातन एवं विश्वमे व्यास प्रकृतिकी कौन-सी कला किस रूपमे विश्वगत जड.

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धमेकी पली (शक्ति) श्रद्धासे विश्वमे छम ( कल्याण # का संचार दोता दे कल्याणकी प्रतिष्ठासे विश्वमे बिमान अकल्याणका नाश दता दै धर्मकी पत्नी मेत्रीसे विश्वम | प्रसाद ( प्रसन्नता )का संचार होता दै प्रसन्नताका संचार उद्धेगको नष्ट कर देता दै (दया'क्तिसे विश्वम अध्यात्म |

चेतन पदार्भाकी रक्षा करती तनन्‌ भदा ओर आधिदैवतर्मे अभयकरा संचार एवं . भवका व्रिनाश्च होता ` दे प्टान्ति-याक्तिये पिण्ड'एवं ब्रह्माण्डभें सुलका संचार हता

बेवतेपुराणके प्रकृतिखण्डे उपलब्ध दै | पुराणका कना हे कि प्रकरतिकी वुष्टि्शक्ति ( घ्म) विश्वके पदार्थोकी क्षीणताये रक्षा करती दै तटं ( शक्ति ) विश्वके पदार्थोकी स्वरूप-च्युतिसे रक्षा करता दै (सम्पत्ति'शक्ति विश्वके पदार्थोकी दाण्द्रिय ( दुर्गति )से रक्षा करती ^ृतिः धम विश्वके पदार्थोकी विकृतियोसे रक्षा करता दै श्षमाः-धमं विश्वके पदार्थोकी रोष एवं उन्मादसे रक्षा करता “रतिः.कटा विश्वके पदार्थोकी उद्ेग ( अरति ) से रक्षा करती है मुक्तिः-ध्म विश्वके पदारथौकी अनैशव्यसे रक्षा करता | (दथाः-धममं विश्वके पदार्थोकी निषुरतासे रक्षा करता है ‹कीतिंधमं विश्वके पदार्थेक्री संकोचसे रक्षा करता हे (प्रतिष्ठा-कला विश्वके पदार्थोकी उच्छेदसे रक्षा करती

हे यान्ति ओर सुखकरे संचारसे अशान्ति ओर दुःख न्ट हो जाते र्ै। पृष्ठिश्याक्तिसे विश्वमे मुद्‌ ( आनन्द ) का संचार होता दै | क्रियाः रक्तिसे विश्वमे उद्योगका संचार तथा आस्यका विनारा होता दै | (उन्नति-राक्तिसे विश्वम दषं ( उत्साह ) का संचार तथा अनुत्सादका विनाश दता ईै। शुद्धिः-रक्तिसे विश्वमे इष्ट ( सुख ) की प्राति तथा अनिष्टका विनाश होता दै | धर्मकी पत्नी भेधाश्से विश्वम स्मरणक्रा संचार तथा अपस्मारका विनाद्य दता दै धमकी पली ‹तितिक्षाः-शक्तिसे विश्वमे क्षेमका संचार तथा अक्षेमका विनाशा हेता दै धर्मकी पत्नी ष्टी से विश्वम विनयका संचार तथा ओद्धस्यकरा विनादा होता दै धमकी शक्ति

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हे तैत्री-कटाः विश्वके पदार्थौकी द्वेषसे रक्षा करती है

(सुदिता”कला विश्वे पदार्थोी स्पर्धसे र्ना करती है। (उपेश्चाः-कला विश्वके पदार्थोक्री कल्दमे रक्षा करती है सनातन धर्मोका विश्वकी रक्षाम सहयोग

सनातन-धर्मके पाल्नका सुफल व्रहावेवतैके आधारपर कुछ अंशम उपरि-निर्दि्ट दै अन्यान्य पुराण भी अपनी प्रज्ञक भाषा सनातन-धर्मके नियरमोके पाटने विश्व-रक्तामे सदयोगका वर्णन कर रे उनक्रा कटना है कि विश्चव्यात धर्मकी १३ पतिर्यो ( शक्तियो ) मानर्वोमि इनका पूण रूपेण विकास होनिपर विश्वमे खुल, समदधि एवं शान्तिकी बां होती हे धर्मकी १३ परियो (राक्तिये )क नाम तथा उनके भानवे विकासका फल इस सूपरमे पुराणों उपलब्ध (3 श्रद्धा मत्री दया दान्तिस्तष्टिः पुष्टिः क्रियोन्नतिः। बुद्धिर्मेधा तितिक्षा ही मुतिर्ध्मस्य पवयः रडासूत भं मंत्री लादुमभय दया॥ शान्तिः सुखं सखुदं तष्टिः स्मयं पुष्टिरसूयत योगं क्रियोन्नतिदंपमर्थ बुद्धिरसूयत नधा स्यति तितिक्षा तु क्षेमं दीः शरश्रयं सुतम्‌ मूर्तिं सर्वगुणोत्पत्तिनेरनारायणात्रषौ

धमूतिःसे विश्वमे सवर गुणी उदपत्ति होती मृति माताने दी पिण्डावच्छैदेन नर तथा ब्रह्माण्डावच्छेदेन नारायणः को जन्म दिया दै जिस मानवमे “मूतिः-शक्तिका विका दोगा, उसके सव दण नष्ट दो जते

ये सव्र नियम यम ओर नियम-मेदसे दो भागम विभक्त है | इनमे यमका पारन परमावश्यक दै केवर नियमोका पाक्न यमके पालनके त्रिना व्यथं हो जाता हे

यमान्‌ सेवेत सततं नित्यं नियमान्‌ बुधः यमान्‌ पतस्यकुबौणो नियमान्‌ केवलान्‌ भजन्‌ ( मनु° ७) © = धम आर मत

विश्वव्याक्त अशान्ति, वैमनस्य एवं परस्पर अविश्वासके अनेक कारणों धर्म ओर मतम अभेदग्रद भी अन्यतम कारण है त्रिविक्रम तीर्थे पारानन्दसूमे धर्म ओर मतके भेदका सष निर्देश कसते दए कटा दै करि “तका व्रिपय--द्र प्रकृति, जीव ओर मोक्षः--ये चार पदार्थं दी मतका सम्बन्ध उपासना-मार्गते दै उपासनाका सम्बन्ध मनसे दै | मनके त्रिगुणात्मक दोसे उपासनाम्‌ भेद दो जाना स्वामाविक दे धर्मक नियम संस्कार दानमे प्रकृतिके नियमेसि सम्बन्ध

=

मनि

घमे-अचुश्षीरुन १९.

रते दै, जो सभी मतके उपासक कर ल्ियि आवश्यक ।मेत्रीः दया, तुष्टि एवं तितिश्चा आदि समी उपासरकेके ल्य आवद्यक दे धर्म-निय्मोके अनुकर मत म्राह्म एवं उपकारकं दै। धर्मविरोधी मत अग्राह्य एवं विनाशक दै ।'

क्रिसी भी सतद्वारा ईश्वरके उपासक्रके ल्यि आर

<=~----~------------ -- ----=--~------

प्रकारके सामान्य धर्मोक्रा पाटन करना भर्वरहरिने आवहयक्र माना दे। अरदिसा, अस्तेयः सत्य; दानः एकपत्नीव्रतः संतोष; विनय एवं द्या--इनका पालन अनिवार्यं है व्यष्टि ओर समश्िः सुखः, यान्ति एवं खमृद्धिके ल्थि विश्वमे धर्म- चक्का प्रवत॑न पसम आवश्यक दै विश्व-कल्याणके ट्य (धर्मचक्रं प्रवर्तताम्‌ सदयोग देना महती सेवा दै

> 0व्ट्4

धृष॑-अवुशीटन

अनन्तश्री जगद्रर रामानुजाचा्य॑ आचा्थपीडाधिपति स्वाभीजी श्रीराघवाचा्थजी महाराज ) तु

अनन्त अपौरुपरेय वेदने (धर्मो विद्वस्य जगतः प्रतिष्टा कहकर धर्मको विश्चकी --जगत्‌क्री प्रतिष्ठा बताया दै जगते पेसा कोद पदां नदीः जिसमे धमं विद्यमान दहो; एेसा कोई तच नर्हीः जिसमे धर्मी सत्तान दौ धर्मकी यद्‌ व्यापकता स्वयं धर्म-दाव्दमे प्रकट द| इसकी वयुसत्ति दै--( ) "धरति इति धर्मः अर्थात्‌ जो धारण करता दैः वह धर्म दै।८( ) शश्रियते अनेन इति धर्मः” अर्थात्‌ जिसके द्वारा धारण करिया जायः वह धर्मद |

घर्मका यद धारण करनैका कार्यं प्रकृतिके कण-कण निरन्तर चलता रहता दै प्राणिमात्रकी नैसर्गिक प्रगति इसीके अधीन दोती रहती दै प्रक्रतिकी सर्वाक्कष्ट कट- कृति मानव इसकी अभिव्यक्ति मानवताके स्यम होती दै ओर इसीकरे बद्र मानव अम्युद्यसे लेकर श्रेयतक्र सम्पादन करने सफक दोता

विश्वव्यापी जीवनके प्रवाहे धभ॑का अन्वेषण करनेपर दो तथ्य उपठन्ध होते ईै--८ १) गति ओर ८२) खिति गतिका परस्विभ जड-चेतन-संयोगमें मिता है जगत्की गमनरीटता इसी संग्रोगपर निर्भर करती हं गतिके नितान्त अमावक्रा नाम सिति दै जड प्रकृति उस्रा धर्मं रदता दै प्रकृतिको इसका ज्ञान नदीं होता कारणः, प्रक्रति जड दै चेतन अपने धर्मभूत ज्ञानके सहारे अपने स्वरूप एवं अपने धर्मकरा अनुभव कर सकता यदी अनमूति उसकी खामाविक्र खिति है धर्म- श्ाख्रका्ौने गति ओर खितिको प्रव्त्ति ओर निचरृत्तिकी संज्ञा दी ओर निदृत्तिकी चरमावस्थामे वास्तविक स्ितिका अनुभव क्रया इस प्रकार प्क दी धर्मकेदो सूपो गये--एक प्रवृत्तिपरक ओर दूसरा निदृ्िपरक

4

अनन्त अपोरुषेय वेव्छे द्वारा ऋषरयोनि धर्मके इन दोनो रूपोका ज्ञान प्राप्त करिया | वेद्‌ चार दै-( १) कऋण्वेद) (२ ) यजुर्वेद, ( ) सामवेद ओर ( ४) अथ्वै- वेद्‌ संदिताः बराह्मणः आरण्यक ओर उपनिषद्‌--इन चार विभागे वेदकी अक्षस्यदि विभक्त दै ऋषि्योने (१) रिक्चाः (२) व्याकरणः (३) निरक्तः (४) छन्द, ( ) व्योतिषर ओर ( ) कत्प--इन छः अङ्ग एवं ( १) धर्मगाछ्ञः ( २) पुराणेतिदासः ( ) स्थाय ओर (४) मीमांसा--इन चार उपाङ्गे द्वार वेदवा्यकरो अकृत क्रिया | ¦

साङ्गोपाङ्गं वेद एवं तप्प्रतिपादित धर्मकी अविच्छिन परम्परा आज भी धरातकछपर विद्यमान दै भारतदेशको, जो करि विश्वक्रा हृदय दै, इसे सुरक्षित रखनेका गख प्राप्त धर्मनिघ्र समाजने वंापरप्परा तथा गुरुपरम्परा दोनो ही प्रकारसे इसे अक्षुण्ण रक्खा दै वंशतः जद ह्म आदि मानवसमाजके उत्तराधिकारी दैः वरदौ गुखपरग्परातः हमने गुरुपरम्परागत उपदेद्ो जीवित ख्खा है कटना होगा क्रि वेद ओर धर्म दोनोका सम्बन्ध गुरुपरग्यरागत उपदेशसे है गुर्परग्परागत उपदेशकरो ही सम्प्रदाय कृते दै वेदी जितनी शाखारण दै वेदके उतने दी सम्प्रदाय दै ये सम्प्रदाय श्रोत धरम॑शाख्नोको स्मृति कहते दै इनकी भी अल्ग-अल्ग परप्परा्प पुराणे ओर आगमोको भी स्मृतिकी कोष्मिं गिन छया जाता हे इनकी भी अलग-अलग परम्परा्प्‌ उपनिषरमि अलग-अलग ब्रह्मवियार्प्‌ मिर्ती प्रयेक ब्रह्मविद्याकी अपनी परम्परा दै इन समस्त परप्पराओं एवं सम्प्रदरयो- की गणना धके अन्तगेत दोती हे इस युगके आरम्‌ .

व्प्रासने वेदक व्यस्त तथा वेदान्त-

; को सु्चवद्ध करक धर्मक प्रवरत्तिपरक एवं निवृत्तिपरक समस्त सम्प्रदायोका सामद्धस्य स्थापित क्रिया था | एेसा करनेरमे उन्दौने जिस मीमांसा पद्धतिका आश्रयं लिया थाः उसमे कमै-मीमांसा ओर देवत-मीमासाके वाद्‌ उनके सूत्तग्रन्थको ब्रह्ममीमांसाका पद्‌ मिला था ] कर्ममीमांसाके सूत्रकार थे

महिं जेमिनि, दैवत-मीमांसके सूत्रकार ये मह्रं काश-

रसस जैसा किं कदा दै

क्मदेवता ब्रह्मगोचरा सा च्रिधोढभो सूत्रकारतः जेमिने्ुनेः काशङ्कतस्नतः बादररायणादिस्यतः क्रमात्‌

महर्षिं जेमिनिने धर्ममीमांसाके वार्‌ अध्याये वेद- विदित कर्मकी मीमांसा की महिं काावृत्लने देवत- मीमांसके चार अध्यावसं क्रमशः देवत्ताके खरूपः उन्वे मेदः, उनक्री उपासना तथा उनकी उपासनाके फलकी मीर्मासा की महपिं बादरायण व्यासने चार अध्याये ब्रह्मी मीमांसा की कर्म साध्य-धमं दै ओर रह्म सिद्ध-धर्म दै दैवत-मीमांसा साध्य-धर्मको सिद्ध- धर्मे जोडनेवाटी कड़ी दै इस प्रकार बीस अध्यायके मीमासा-दास्रको एक दाख मानक्रर महिं बोधायनः यङ्कम॒नि एवं आन्चार्थ द्रमिडने कर्मकाण्ड ओर व्रह्मकाण्डके सामन्न्य- का प्रतिपादन क्रिया जगहर श्रीरामानुजाचार्भने इसी परस्पराका अनुसरण किया दे

त्रेदिक कर्मकाण्डका सम्बन्ध है देवताओमि देवता्ओं- क्रे अन्तर्यामी दै परत्रह्य इस प्रकार कम॑काण्डका पर्यवरसान होता देवत-काण्डर्म ओर दैवतक्राण्डका पर्यवसान दोता ब्रह्माण्डे यद्‌ सामञ्ग्यकी एक पद्धति महर वेदव्यासके पिता मदं पराशरने--

कचं यः पिनृरूपषटग्विधिहुतं हल्यं अुङ््ते

देवत्वे आअगवाननादिनिधनः स्वाहास्वधा संत्निते

_ कहकर इसी पद्धतिकरा प्रतिपादन क्रिया दे | उनके कथनका आद्राय यद है किं अनादिनिधन विभु भगवान्‌ श्रीदरि सवधासंज्ञक कल्यको पितृरूपसे तथा स्वादासंज्क

ट्‌ हव्यको देवरूपसे रहण करत

~ अदं दि सर्वयज्ञानां भोक्ता प्रभुरेव 0

--न-य>4लद्ट- ~

घमां रश्चति रचितः #

== अर्थात्‌ मे समसत वनौका भोक्ता एवं प्रभु द, कह कर भगवान्‌ श्रीकृष्णे इसक्रा अनुमोदन क्रिवा दै |

पुराणोने विभिन्न सम्प्रदायोके प्रतिष्ठापक्र आचार्यक अवतारपुरुष वताकर एक दूसरी पद्धति प्रस्तुत की है | उदाद्रणाथं जेते--

शंकरः शंकरः साक्चच्छेषो रामानुजः स्वयम्‌

मध्वाचार्यः स्वयं ब्रह्मा ००००००००.

अर्थात्‌ श्रीरंकराचायं साक्षात्‌ शंकर भे | श्रीरामा | नुजाचा्थं शोषके अवतार धे पितामह ब्रह्माने मध्वाचायै. | के रूपमे अवतार प्रहण करिया था।

[१ [>

पद्धति कोई भी क्वौ होः अभीष्ट दै धमे अन्तग॑त आनेवाे सम्प्रदायौका सासङ्खष्य साङ्गोपाङ्ग वेदक गुरूपरप्परागत उपदेशसे सम्बन्ध होनेके कारण यह | सामञ्ञस्य स्वतःसिद्ध हे | |

वास्तव ोकसे परेकतकः व्यवदारमे परमार्भतक, | व्यक्तिसे समाजतक रे कोई ल्य वा उदय नदी | जो पुरपार्थ-नद्यके अन्तर्गत आता हो हमारे शाखकारोने धर्मः अथं, काम ओर मोक्चके रूपमे परुपाध | चतुष्टयको मानव-जीवनक्रा टश निर्धार क्रिया अध | ओर कामको धर्मनियन्वितकर उन्दने मानवके यि धर्म | जीवनका विधान क्रिया परद्रत्तिते निच्रत्तिकी ओर | आधारपर उर्न्ेनि जीवनकी व्याख्या की ओर मानवको परम पुरषार्थकी ओर अभिसुल दोनेकी प्रेरणा दी जीवनके | प्रत्येक केव्रमै साध्य-धर्मका अनुष्ठान ओर सिद्ध-धमंका चिन्तन करता हुआ साधक अपने धर्मभूत ज्ञानक पूर्णरूप | विकखितकर अपने सखरूपगत भर्मको अनुमव करनेमे |

|

समर्थं दता | ` जाननेकी इच्छा आनन्द्की अआकराह्का अर अमर"

की कामनाकरो केकर आरम्भ हुई जीवन-चात्रां धर्मभूत | ज्ञान व्यक्तिको सर्वाधारः सव॑नियन्ता; सर्वरोपी, सर्वात भगवानकी ओर अभिमुख करता है इस आभिग्रु्यकी | पूति आत्पसम्पण-यक्मे होती दैः जिसके सम्धन्न दनिपः | आनन्दसिन्छु मगवान्‌ चेतनबिन्दुम सदाके ल्ि अनत, आनन्दानुमूतिरूप धर्मी प्रतिष्ठा कर देते दै | |

धमे २१

धूमं युर

( रेखक भदात्मा श्रीसीतारामदास्न सेकारनाधनी महाराज )

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विदारचिश्वस्य

विधानबीजं हआ शा; क्योकि चद्‌ आत्माख्य धमं सुक्ष्म दोनेके कारण वरं वरेण्यं विधिविय्णुवैः। सुविज्ञेय नदीं दै ।' इस सन्त्रसे धरम ८आत्माण्के नामते कथित्‌ वसुं्रावारिविमानवह्धि- हुआ दे ।* वायुसखरूपं भ्रणवं विचन्दे फतच्छरत्वा सस्परिदृद्य सर्य जिसने प्रच्द भ्यम्‌ ~ धर्म व्या दै {ध्रियते येन धर्मः, जिसने इस बह धम्यमणुमेतमाप्य पिद्व-त्रह्माण्डको धारण क्रिया है, वद धर्म है ( कट० \ \ १३) क्रग्वेदमे दिखा दै - मनुष्य इस आस्मतच्चकरौ श्रवण करके “म॑ दी आत्मा = द्रः --इउस प्रकार -उसकौ सम्यक्‌ ग्रहण करके पश्चात्‌ त्रीणि - पदा च्िच्क्रसे च््णुर्गोपा अदाभ्यः। > रि आत्मज्ञानरूपी श्रेष्ठ धर्मकी सदावतासे प्राप्न उस आत्माको अतो धसोणि

धारयन्‌ ( च्थव-संदिता १।२२। १८)

अर्थात्‌ परयेश्वरने आक्राशके वी चम॑ त्रिपाद-परिमित सख्ानमं त्रिकोकका निर्माण करके उनके भीतर धर्मो

( जगनिनिवादक कमसमू्दो ) कौ स्थापित किया यज्ञेन यद्तसयजन्त देवास्तानि धसौणि प्रधमान्यासम्‌ ( ऋछवेद १०। ९० १६)

ध्यक द्वारा यज्ञपुरुपकी देवताओने पूजा की थीः यदं प्राथमिक धर्म था | देवटोककी प्रेरणासे मनुष्य-टोकर्म यज्ञ प्रवर्तित हुमा

ईोपनिपदूम द्वा है -

हिरण्मयेन पात्रेण तत्वं पूषन्नपावृणु

सत्यस्यापिहितं सुखम्‌ सत्यधमीय द्ष्ये (१५ ) ध्योतिर्मय पाके द्वारा सलयक्रा अर्थात्‌ आदित्य- मण्डल व्याहुत-अवयव पुरुष ) सुख ( सुख्य-स्वरूप ) आत्रृत है दे जगत्‌के परितोषक्र सूर्यदेव | सत्यस्वरूप व्दारी उपासनाके फठ्मे सत्यखसरूपक्री मेरी उपछन्धिके व्यि उस आवरणकरो दया दो ॥' देवेरत्रापि विचिकित्सितं पुराः न॒हि सुक्ञेयमणुरेष धमः। (कढ० उ०१।१।२१) नचिकेता आत्मज्ञानकी प्राकिके अधिकारी यद्‌ परीक्षा करनेके चि यमराज कहते ईदै--

(रूस तच्चकरे विषयमे सष्िकालमे देवगणको भी संदेह

या नदः

देदादिसे प्रथक्‌ गरौ तच्चज्ञानक्रौ दी धपे कदा हं

उपलब्ध करता

अन्यत्र धसदस्यन्राधसोडन्यत्रास्सात्‌ छताङ्कतात्‌ (कढ० १।२॥। १४) ~ {नन मर कह दस अन्त्रयं लास््रीय अनुष्ानक्रा धमं का

= यथो्के दुर्भ घृष्टस्‌

(८० २।१। १४) '्टूर्मम पर्वत-दिखस्पर वर्धित व्रष्टिधाया जिस प्रकार निम्नतर पदा प्रदेशमे फैट जाती है, उसी प्रकार जो व्यक्ति धर्मान्‌ अर्थात्‌ सव्र प्राणियौको "` ` "| इस मन्तरं उपनिषद्‌ माताने धर्म शद्‌ प्राणीके अर्थम प्रयुक्त करिया है सत्यं वद्‌ धम चर ( तैत्तिरीय० २।११।१) '्सत्य॒बोढो | धरम ( अनुष्ठेय कम ) का आचरण के! इस खले श्ध्म, शब्द अनुष्ठेय कर्मके अर्थम हे एतदेवं विद्रान्‌-- ( छान्दोग्योपनिषद्‌ २। १। ४) धजो कोई इस प्रकार जानकर साधुगुणःविरिष्ट रूपमे सामक्री उपासना करता है उसके पास सारे उत्तम धमं पुण्यसमूह ) अतिशीप्र जति ओर उसके भोग्य स्प अवस्थान करते ।› य्ह धम-शब्द पुण्य अथे आया नैव भ्यभवत्‌ तच्छ्रैयो रूपमत्यसृजत धम॑-- ( शृहदारण्यक १। १४)

२९२

तव मी सक्षम हुए उन्दने प्नेयःखरूप, सबके चयि कल्याणप्रद धमकी सुषि की |: यद्‌ घर्म ही क्षत्रियका क्षत्रिय अथात्‌ नियन्ता अतएव धर्मते श्रेष्ठ कुक भी

दीं है राजाकी सदायतासे जसे कोई दूसरेको जीत ठेता दैः उसी प्रकार धर्मकी `सदायतासे दुःैड मनुष्य सबको जीतनेकौ कामना करता है] वद्‌ धर्म दही सव्य | इसी

|

कारण जब्र कोई सत्य ब्रोरता हैः, तव ज्ञानी लोग कहते दै किं यद्‌ घमं कता है ओर ध्म॒॑बोलनेपर कहते किं यह सत्य कटता हे; क्योकि धर्म दी यद दोन हो जाता

भ्रुतिमाता धर्मस्वरूपा धम आत्मा दैः धर्म तचज्ञान दैः ध्म प्राणी दैः धर्म॑ ओखरविधिरूप दैः धर्म पुण्य दैः धर्मं सत्य है टष्ट-अदृष्ट रूपमे घर्म ही कायं उत्पादन करता दैः इत्यादि वाते कदी गयीं

नचिकेताने यमसे कदा, (आपने धर्मे अन्यः अधर्मसे अन्यः का्ै-कारणसे प्रथक्‌ तथा भूतः भविष्यत्‌ ओर वतेमानसे भी प्रथक्‌ जिस वस्तुको प्रत्यक्ष किया है, उसे सुक्चको कदं ।' ( कठोपनिषद्‌ २। १४ ) यमने कदा--

स्वै वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सवबौणि यद्‌ वदन्ति यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति

तत्ते पदं संग्रहेण व्रवीम्योमिव्येतत्‌ ( कढ० १।२।१५) (जिसको सारे वेद परम वाञ्छित बतछाते दैः निखिल तपस्या जिसकी प्राक्षिका उपाय दहै मनुष्य जिसको प्राप्त करनेके देतु व्रह्मचर्यका आचरण करते दैः वह्‌ परम ईप्सिततम वस्तु पुरुषोत्तम ॐकार है ।” प्र ओर अपर व्रह्म इस ॐकारको जानकर जो जिख वस्तुकी इच्छा करेगाः इसके द्वारा उसे पाथेगा | यद्‌ सवंश्रेष्ठ आ्म्बन दे पर ओर अपर व्रह्म--दोनोका यदी आश्रय दै जो इख ॐकारकी उपासना करेगाः वदं बरह्मलोकरम पूजित दोगा ( कठोपनिषद्‌ १६-१७ ) एतद्वै सत्यकाम परं चापरं बहम यकारः तस्माद्‌ विद्वानेतेनैवायतनेनेकतरमन्वेति ( म्रहनोपनिषद्‌ ५1 २) (द सत्यकाम | ये जो पर ओर अपर ब्रह्म हैः ये दोनो कारसखरूप रै इसी कारण ज्ञानवान्‌ व्यक्ति ॐकासका अवटम्बन करके अपने अभिरुषित पर या अपर ब्रह्म ॐ~कार-

को आत्मखरूपमे प्रात करता हे ।'

= ११

# धमां रक्षति रद्धितः

आमिव्येतदक्षरमिदं सर्वम्‌ तस्थेपव्याख्यानं भूतं भवद्‌. भविष्यदिति सर्वमोंकार एव यज्ान्यस्तरिकालातीतं तदप्य कार एव (८ भाण्डूवयोपनिषद्‌ } - यद्‌ अक्षर (वं) दी जगत्‌ तथा मूः-युवः-खः | रूप त्रिथुवन--सवर कुछ दै इसकी सुस्पष्ट व्याद्या यह्‌ है। किं अतीतः वतमान तथा मविष्यत्‌ जो कुछ दै, सव उश्का दी दै इससे अतिरिक्त जो कुछ त्रिकालातीत दैः वह्‌ ॐश्कार ही दै ।' ॐ्कारके सिवा ओर कु नदीं दै यावर.जङ्गम--छ | कु अकार दै उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज, जरायुज- समस्त प्राणियोके सूपमं तथा नद्‌-नदी, पर्व॑त, दह आदि स्थावररूप बनकर वदी विराजमान हो रदा दै यदह ॐकार दी परमार्थे सारस्वरूप अद्वैत ब्रहम दै |

परमाथैसारमूतं यद्द्रेतमशेषतः। धमं इस ॐश्कारका दी नाम दै | उकंधमुक्थकरश्चोकूधी ब्रह्यक्षत्रविडन्तिमः धर्मोऽधमंहरो धर्म्यो धर्मी धर्मपरायणः ॥५४॥

( ञ्कारसदस्रनामः, प्रणवकय |

बीस संदितार्णंतथा मनु, अत्रिः विष्णुः हारीतः याज्चवल्कय | व्यासः शद्धः छिखितः दक्षः गौतम, सातातपः, वसिष्ठ प्रजापति ¦ लघुग्ध, ओंशनसः बृहद्‌ यम, ठ्छु वमः, अर्ण, अकरि | आङ्गिरसः उत्तराङ्िरसः कपिलः ठष्यावलायनः, वृद्ध हारीत लोदितः दाट्भ्यः कण्व, बृहसराद्यर ओर नारद- ये स्मृतिं | | इन सवका नाम ॒धर्मशास्र दै श्रीमनुभगवानने मनुः संहिताके प्रथम अध्यायमे आत्मन्ञानको दी प्रकृष्ट धर्म बतलाया | दे 1 उसको प्राप्त कसनेके स्यि उपनयन आदि संस्कार आवश्यक यट बतस्नेके पटले धर्मका लक्षण बतलाते दै -- सङ्धिनित्यमद्वेषरागिभिः |

विद्रद्धिः सेवितः हदयेनाभ्यनुक्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत

( मनु० २। ) जो धम॑रागवेषविदीन साधुचरित विद्वानेकि दवारा अनुष्ठित दोता दै तथा जिसको हृदय अनुमोदन करता ( जिससे हृदयम किसी प्रकारकी विमति नहीं आती ), उस धर्मको सुनो | धर्मका मूक अथवा प्रमाण- ` वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्छतिशीरे तद्विदाम्‌ | भाचारङचेव साभूनामात्मनस्तष्टििव `

(मनु० २।६)। |

1

धुर

(सारे वेद, वेदर्ञोकी स्मृतिर्यो, उनके शील ( ब्रह्मण्यता आदि तेरह गुण )› साधुजनके आचार तथा आत्मतृष्टि-- ये कतिपय धर्मके मूढ या प्रमाण द।»

तिस्तु वेदो विजेयो धर्मशास्त्रं तु वे स्तिः

ते सवार्भैष्वमीमांस्मे ताभ्यां धसोँ हि निर्बभौ

(मतु० २। १०)

चेर्दोका नाम दै श्रुति, धर्मार्घरोका नाम हे स्मृति |

सव विषयमे इन दोनो याचके विरुद्ध तके द्वारा मीमांसा

अभिप्रेत नदीं हैः क्योकि श्रुति ओर स्मृति धर्मं स्वयं प्रकादित दुआ डे 1"

वेदः स्तिः सदाचारः स्वस्य प्रियमात्मनः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणस्‌

( मनु० २1 १२) वेद्‌, स्मृति, सदाचार तथा आत्मतुष्टि-ये चार धर्मके साक्षात्‌ लक्षण ( प्रमाण ) ऋषरियोने निदेश क्रिय ।›

एतच्चतुर्विधं प्राहुः

अर्धकामेप्बसक्तानां धस॑त्लानं विधीयते धर्म॑ जिज्ञास्यमानानां प्रमाणं परसरं श्रुतिः ( मचु० २। १३)

ध्यया धर्मका ज्ञान उनको ही होता दै, जो अर्थ॑.जर वःय आसक्त नदीं होते ओर धर्मकी जिशाखा करनेवार्लके च््यिवेद्‌ ही प्रष्ठ प्रमाण दहे ।'

सत्ययुग एक प्रकारका ध्म॑थाः भ्रतायुगम दूसरे प्रकारका द्वारम अन्य प्रकारका ओर कलियुग्मे ओर दी प्रकारका धर्म दै जैमे-जेसे युगका हास होता जाता दैः उसी प्रकार धमका भी हास होता है ( मनु° ८५ )

सत्ययुगे धम॑तपस्याप्रभान होता ३, तरतम ज्ञान- प्रधान होता दैः द्वापरम यज्ञप्रधान होता दै तथा कलियुगं दान्‌ दी एकमात्र ध्म ( मनु° १। ८६ )

वर्णधर्म, आश्रमधर्म, गुणधर्मः नैमित्तिक धमे, पुरुष- घम, ख्री-घमं आदि सवर धरमोके विषयमे भगवान्‌ मनु आदि संहिताकारोने छिवा दे--

आर्ष धर्मोपदेशं वेदशाखराविरोधिना

यस्तर्वेणानुसंधत्ते स॒ धम॑॑वेद नेतरः

( मनु° १२ १०६ )

चेद्‌ ओर वेदमूलक स्मृति आदि शाख्रौके उपदेरशका जो अविरोधी तक्के द्वारा अनुसंधान करता दै वही धर्मके स्वरूपको जान सकता है ।›

चार आश्रमेकि साधारण धर्म-- तिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिमरहः धीर्विया सत्यसक्रोधो दकं धर्मलक्षणम्‌

( पतु० ६। ९२ )

“धृति ( वैय ) अर्थात्‌ संतोष, क्षमा अर्थात्‌ सामथ्यं हते हुए मी अपकारीका अपक्रार करना, दम अथात्‌ विषर्योका संसर्ग होनैपर भी मनको निर्विकार रखना, अस्तेय अर्थात्‌ काव; वचन ओर मनसे परदरव्यको चुराना शौच अधात्‌ शाखरानुसार मिद्री-जक आदिके द्वारा देदडद्धिः इन्द्िय-निग्रद अर्थात्‌ येच्छ वरिषयभोगसे हटाकर अलोक्रिक व्रिषयकी प्राप्तिके ल्यि शाखर-सम्मत मासे इन्द्रियोको छे चलना, घी अर्थात्‌ आत्सविषयिणी बुदधि--भ्यै शरीर नदीः आत्मा ह्र इस प्रकारकी बुद्धिः विद्या अथात्‌ आत्मज्ञान जिससे हो उस व्रहमविद्याका अलशीलन, सत्य अथात्‌ यथां कथन ओर प्राणिथोका दित-साधनः अक्रोध अथौत्‌ क्रोधका कारण उपस्थित होनेपर भी करुद्ध दोना-इन दसखौका नाम हे ।?' इनमे जो सम्यत प्रतिष्ठित वहौ धामिक उसीको परम गतिकी प्राप्ति होती

सर्वसाधारणके 8 9

वैर अुष्य धम--

अर्दिखा सत्यमस्तेयं शौचभिन्द्रियनिग्र्ः

एतत्‌ सामासिकं धमं चातुर्वण्येऽत्रवीन्मजुः

( मलु° १० ६३ )

८अदहिसा; सत्यवचनः, परद्रव्य अपहरण करना? ञचचिता तथा इन्दिय-निग्रह अर्थात्‌ इन्दरियोौका संयम--हनको सर्वसाधारण चायो वणेकि धर्म तथा संकीणै जातिके धमेके सपमे अनुष्ठेय वतते दए भगवान्‌ नुने निदेश किया हे विष्णुसंहितामें छिखा दै--

श्षमा, सत्य, दम, शौच, दानः, इन्द्रियनिग्रह, अर्िसा; गुखसेवा, तीरथ-दर्शनः दया, लताः निखभता, देव ब्रह्मणकी पूजा ओर अनचूया-ये साधारण धम ये सब धम चारौ व्णकि है |;

नेमिनिङृत मीमांसादशनका प्रथम सञ्च है--“भथातो ध्म॑जिज्ञासा ।› अर्थात्‌ धर्मकी मीमांसा दी मीमांसादशेनका मूल दैः एेसा जान पड़ता धर्मं क्या दे उसका क्या लक्षय दै किंस कर्मके करनेसे धर्म ॒होता दै ओर किंस कर्मके करलेसे घमं नदीं दोता इसका उत्तर देनेके पहले धर्मका एक लश्चषण करना आवश्यक हे धमै जिज्ञासा अं

(`

हे धमैको जाननेकी इच्छा घर्मको जाननेकी आवश्यकता क्या हे तथा धर्मके कौन-कौन-से साधन प्रसिद्ध धर्म क्या है ओर अप्रसिद्ध धर्म क्या दै एक आदमी धसका लक्षण एक प्रकारसे करता दै

ओर दूसरा दूसरे प्रकारसे करत

इन सव वातोकी मीमांसा करके जैमिनिने धर्मके लक्षणम यह सूद रिखा दहै-

1.4

चोदनालक्षणोऽर्ते धस | (क्रियाम पवर्तित करनेवाले शाखर-वचनका नाम ध्चोदना दे अर्थात्‌ आचार्थसे प्रेरित होकर जो याग आदि कयि जति दैः उसीका नाम धर्महे | आचारे उपदे शके अनुसार करिया जानेवाटा यज्ञ आदि ही धर्महे। जो काय भनुष्यके कल्याणक च्वि दोता है, उसका नाम धर्म है | अर्थात्‌ जिस क्का अनुष्ठान करनेसे मङ्गल दोता है, वही धर्म॑ दै तथा जिसमे भूतः भविष्यत्‌ वतैमान ओर सूक्ष्मः व्यवदित्‌ः विप्र्ष्ट = अवगत करम समर्थं॑दहो सक्ते है उसका नाम धमैहै। जो कुक श्रेयस्कर अथात्‌ मङ्गकजनक दहै, उसका नाम धर्म है | य॒ एव श्रेयस्करः एव धर्मशब्देनोच्यते विशवकोषरमँ मीमांसा सूत्रभाभ्य ) धृक्‌ कश्चण-- पात्रे दानं मततिः कृष्णे सातापित्रोश्च पूजनम्‌ श्रद्धा बकिरमैवां आसः षड विधं धर्मलक्षणम्‌ ( शब्दकल्पद्रुम पञमोत्तरखण्ड ) “ुपात्रको दान देना? कृष्णम मतिः माता-पिताकी पूजा, श्रद्धाः व्राणिर्योके आहारके च्वि द्रव्य-दानः मोग्रास प्रदान करना--ये छः प्रकार धर्मके लक्षण]

धर्मका अङ्ग-- |

ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा प्रवर्तते दानेन नियमेनापि शक्षमाश्षौचेन वट्कभ अहिंसया सुशान्त्था च॒ अस्तेयेनापि वतेते ` पैर्वसभिर्ैस्त॒ = धर्ममेव प्रसूचयेत्‌

( पाद्यः भूमिखण्ड ) श्रह्चर्य, सत्य ओर तपस्या, दानः नियमः क्षमाः शोचः अदिखा, च॒रान्ति तथा अस्तेये द्वारा धम सूचित दोता हे ।? ©. धर्मका मूल-- अद्रोहोऽप्यरोभश्च दमो भत्तदया तपः। वरमाचर्य ततः सत्यमनुक्रोशः क्षमा तिः

=

# धमां रष्दति रक्तः

सनातनस्य धर्मस्य मूरूमेतद्‌ दुरासदम्‌

( मत्स्यपुराण |

“अद्रोद्‌ः अभः वाह्यन्दरिय निग्रह, प्राणिमात्रे प्र दयाः तपस्याः ब्रह्मचयैः सव्यः करुणा, क्षमा ओर पै 3 सनातन-धमेके दुम मूल देवताओंके ध्म वामनपुराणे इस प्रकार करे गे ईै--“ुकेशी नामक एक राक्षसने ऋपरियेसे यह्‌ प्र था करि जगत श्रेय क्या दै! रुपिरमोनि वतलया रि इट ओर परलोकमे धर्म ही श्रेय है साधुजन इस अक्ष धम॑का आश्रय लेनेके कारण दी जगते पूज्य ओर धमै माग॑पर चटनेमे सव सुखी दो सकते है ।› सुकेशीने पूछा वय्म॑का लक्षण क्वादै सौर क्वा करसे धर्म देता ३॥ ऋषियेनि कदा--ध्याग-यज्ञादि क्रियाः स्वाध्याय, तचा विष्णुपूजामें रतिः विष्णुकी स्तुति देवताओंका परम धा है बाहृद्धारा पराक्रम तथा संग्रामरूप सत्कार्य, नीतिदा्फ निन्दा ओर शिवभक्ति दैव्योका परम धर्म है योगानुष्टान। स्वाध्याय, ब्रह्मज्ञानः विष्णु ओर शंकरी भक्ति दैत्यो धम है चरत्य-गीत आदिकी अभिकता ओर सरखतीरी दद भक्ति गन्धवोकि ध्म है पौरुषे कार्यम अभिज्ञा ¦ भवानी ओर सु्की भक्ति तथा गान्धर्वं विधा. विद्याधरोके धमं दै समस्त मन्व-शस्-विदयाे निपुण | किंपुरुषोका धर्म॑ है योगाभ्यासे सदा अनुरक्त सव स्थाने इच्छानुसार गमनागमन, नित्य ब्रह्मचर्य जपसम्बन्धी ज्ञान पितरोके धर्मं धर्मज्ञान रषिर्योका दै साध्याय, ब्रह्मचर्य, दम, यजन, सरख्ता, क्षम, जितेन्द्रियता, शोचः मङ्गलकार्यमे श्रद्धा, देव-क्ति मानव धमं दै | धनाधिपतित्व, भोग, खाध्याय, शंकरोपासनाः अहक ओर मदे रदित दोना-ये गुयकके धरम है परदार अभिलाषा, परकीय अर्थकर ट्य टोलपता, वेदाभ्यास

सः = | शकरभक्ति ाक्वसोके धर्म | अविवेकता, अज्ञानः अश्यवि।

तथा आमि्रमक्षणमे रति-ये पिशाचके ध्म वामनपुराण ११ अध्याय )

भस्यपुराण ३। ९० के अनुसार एक देवता | बरह्के दक्षिण सनते उन्न होते है श्रीमद्भागवत अनुसार दश्च प्रजापतिने धर्मदेवको १३ कन्ार्पै दानमे थीं उनसे धर्मदेवकी अनेक संतान उलयन्न हुई भद्धाके गर्भमे सत्यः चैके गर्भे प्रसादः दयके गम अमय, गान्तिके गर्भे यमः तुकि गरम॑तते हर्ष, पि

५५८ >. [* > =: 9.

गभंसे गवं; क्रियाके गर्भ॑से योगः उन्नतिके गभ॑ये दप, व्द्धिके

गभ॑ते अर्थः मेधाके गर्भे स्मरति, तितिश्चाके गभैसे सङ्गरः ९० गभ॑से

लन्जाके गर्भसे विनय ओर पूर्तिक नर नासर उन्न हुए धर्मकी उत्वत्ति-- अथोत्पत्ति प्रवक्ष्यालि माहात्म्यं तिथि चेव सव॑ व्रह्माव्यय्‌ः सिदष्चुः प्रजास्त्वाै पालं

तथा मादाय सृष्टि करनेकी से युक्त दए उनके चिन्तनसे उनके (२ कुण्टलधारी तथा शेत माल्य ओर अनुलेपन आदिते युक्त एक पुख्ष प्रकट हुभा | ब्रह्मान उसको देखकृर्‌ (तुम चतुष्पाद्‌ ब्रषाकृति हो, तुम च्येष्ठ करोः इतना कहकर वै शान्तं हौ गये धमं॑सव्ययुगमे वचलुष्पादः प्रेता च्रिषाद, द्वापरे द्विपाद्‌ ओर कटि एक पादह्वारा प्रजावर्ैका पाटन करता हे बद व्राहाणोकी पूरणरूपरे, क्षविवकरी विवादे, वैक द्विपादसे ओर श्रकी एक पादस रका करता गुणः द्रव्य क्रिया ओर जाति-ये चार पाद्‌ दै। वह वेद त्रिश्वज्गके नामे अभिदित दोता है उसका आन्त ॐकार हैः दो सिर ओर सात हाथ उदात्तादि तीन सखसेके द्वारा वद्ध है वर्मन यह भी कदा करं ध्धमैदेव, आजते त्रयोदशी व्री तिथि दोगी; इस तिथिमे ठम्दारे उदेश्यते जो उपवास करेगा, वहं पापे सुक्त दो जायगा |>

वामनपुराणे छ्खिा है किं धम॑के अहिंसा नाशक मायासि चार पुच्च उत्पन्न हए उनमें योगशाखविशारद च्येष्ठ पुत्र सनल्ुमार ये, द्वितीय पुत्च सनातन भ; वतीय सनक ओर चतुथं सनन्दन भे परंतु दूसरे पुराणम ये छोग ्रह्मके मानसपुत्र कषे गये श्रीमद्धागवतमँ चतुष्पाद्‌. की कथा इस प्रकार वणित दै -

तपः शौचं दया सत्यमिति पादाः प्रकीर्तिताः

अधर्माशेख्यो भग्नाः सखयसङ्गमगरैस्तव

अ०४--

अनु

= 2९ ~

२५

इदानीं धमे फादस्ते सस्यं निरवतैयेद्‌ यतः तं जिघरक्षत्यधर्सोऽयमनृतेनेधितः किः

( श्रीमद्गवत १७ २४-२५ )

सत्ययुगयं तपस्या; रोच दया ओर सत्यरूप तुम्दारे

पाद्‌ ये | विस्मयः विषय-सङ्ग ओर गर्व॑के द्वारा उनसे

पाद टूट गवे दँ अव सव्यस्य तुम्हारा एक पाद

रद } तुस इसीके आश्रयसे क्रिसी प्रकार अवस्थित

गेगे, ठेसा सोच रदे हो; किंतु यह दुत कटि असत्य-

दत दोकर तुम्हारे उस पादको भी भग्न करनेके

सरे वैष्णव, यति, वद्यचारीः पतित्रता नारीः प्राज् व्यक्ति, वानप्रखी, भिक्षु, धर्मी चयः सद्वैद्ः द्विज-सेवा- परायण शुद्र तथा खजनोके संसर्गे रहनेवाटे कोग-इन सब्र लोगं धर्म सर्वदा समप्णपमे अवस्थित रहता है तथा अद्धव्थ, वटः विल्वः चन्दनः, देवपूजके योग्य पुष्पौवाठे बक, देवाय, वीर्थश्यानः, वेदवेदीङ्ग॒श्रवण॒करनेवाछे व्यक्ति, जरौ वेदपार होता ष्ण; नास-गुण जदा गीवित चेते स, घरत-पूजा, सप तथा विधिपू्वक यज्ञके साक्षी स्थल, दीक्लाः परीक्षाः शपथक्रे स्थानः गोष्ठः गो्पद्-भूमि तथा गोयृह--इन उम खाने ध्म अवसित रहता दै तथा इन कषतर स्थाने घम निस्तेज नदीं दता }›

हेसाद्रिः व्रत-लण्डगै उद्धत समविष्यपुराणके अनुसार (वधयः आध्रस-वम, वर्णाश्रसधर्म, मौणघम ओर नैमित्तिक धं ये र्पच प्रकारके धर्म | एक वर्णका आश्रय लेकर जो सभ प्रयतिंत होता दै, उको वर्ण-धम कदते दै- जैसे उपनयन आदि आश्रसकौ आश्रय करके जो धरम प्रव्िंत होता दै, उसको आश्रम-धसं कते --यथा भिक्षा तथा दण्डादिः चारण वर्णत्व ओर आभसत्वको अधिकार करके जो धरम प्रव्तित दता है उसको वर्णाश्रम-धमं॑कदते ओते मोञ्जी-मेखलादि-धारण जो धर्मं गुणके दवाय प्रवतत होता

4

द, उसे गुण-धमं कहते --जेसे नियमपू्क प्रजापालन आदि

किसी निमित्तको आश्रय करके जो धर प्रवतिंत होता दैः उसको नैभित्तिक ध्म कहते -जेते प्रायश्चित्तःविधि आदि विश्वाभित्रकं द्वारा कथित धम॑का लक्षण-- यमायौः क्रियमाणां हि शंसन्स्यागमवेरिनः स॒ धर्मो यं विग्न्त तमधर्मं॑ प्रचक्षते

4

रद्‌

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^ +~ , = अस्‌। रक्लत रक्षितः

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५१ 2 धरर

--------------------------------- “आगमतस्वको जाननेवाॐे आयोग 8 अनुष्ठान नाननवाख आयोग जिस कर्मक धर्मः भूतदया ।' अर्थात्‌ प्राणिवगि ऊपर दय कल = = तथा जिसकी प्रशंसा करते हैः उसको ही धम ` "मि धमं कते है ओर जिन कमी निन्दा करते 1 | १९ जिन्‌ करकी निन्दा करते चै, उनको वतां म्र "९ श्र्चद्धक्ण ऊष 3 कते ईह ° टृत्ति ओर निन्रत्तिजनक दो प्रकारे $ दिक (वः ] त्रापि ~ १. चक क्स्य हयनिं सृष्ित) नौ आदिमे निरेग किया ञ्ष हिसामतस्ता इनं लर [3 ११९ ९९1 अतस्त 8 प्रब्ुत्तिखब्धण जो कर्म

< उनको धर्म कहते है| ये धमं॑गुषमेदानुसार तीन प्रकारे दै साचिके, राजस ओर तामस जिन कनं किसी प्रकास्की फल-कासना नदीं होती, ये दी कर्म॑ दमा कर्तव्यकर्म है इस प्रकारकी = होते दैः उनको साविकं क्म कहते साकं धमंका अनुष्ठान करनेसे सोश्चकी प्राक्षि दोती दे मोश्षके निमित्त संकल्म करके जो कां अनुष्ठित होते द, उनको राजसधर्मं कते दै कर्मम विधिकी अपश्वान करके केवर कम॑-खुद्धिले जो कार्यं अनुष्टित होता दै, उसको तामख धमै कते है |

बुष्दरखं जो कमं अनुष्ठित

जो

ध्मनुष्यकरे लये जो कतव्य या आचरणीय कदा गया दे? वदी धर्म है स्पृतिशाख्से धर्मका यद अरं प्रास होता दे ।? 'पुखण-शाख्रम धर्मका एक अथं नही देखनेमं आताः अनेक स्थम धभै-शब्द अनेक अर्थम व्यवहृत दुआ दे) ‹मनेोषत्तिर्योको धर्म कदा गया है- जसे दया-घभे, सतय- धम, असा परस धर्म, क्रोध अपकृष्ट धमं इत्यादि 'इन्दियोवेः कार्थं भी धर्म-नार्े कथित दोते दै--ञसे च्षुका धर्म दर्शन, नाखिकाका धम है आघ्नाणः मनका धर्म हे चिन्तन--आदि ।? (कर्तव्यका नाम मी धर्म॑ &ै जते एिताका घर्मः पुच्का धमई, पत्नीका धम इत्यादि नुणोकी क्रियाको मी धर्मं कंते ईजे रीका भम संकोचन, तापका धर्म दे सप्रसारण इत्यादि ।* ृच्यनुकरूक कार्की मी वर्मं कषत 2 5 ^ व्य॒वसायीका धसं इत्यादि [* याजकका धर्मः कषकका धम व्यवसा

है जैवे जागतिक धरम, लोकिकं धर्म, सामाजिक धूम

| रिक 5 उर मानसिक धमे आदि ।' ्नौलिक घर्म, दैदिक धम आर सान

1 दिखा चाधर्मलक्षणा

( महाभारत ) डे ओर अधरम दिसाङछणदे |? को

धय © कतिपथ विशिष्ट व्यापारेकी समधिको भी धर्म का.

सुनि द्ध ्धये ( श्ीवैष्णवमतान्नमाखर ११२॥| ष्दानः तपस्याः तीर्थसेवा ओर अप--ये अदिाके समा ुण्यजनक नदीं अत्र उत्तम-घर्मपरायण मुमु पु युधमकी ददता बड़ानैक ल्य परपी इनर्प ि्षा करे |

त्रम ६. यिनी लः ^ =, | जसे वक्रगायिनी नदौ खागर्ं भिख्ती है, उसी प्रका सारे धमं अर्दिसकर पुरुषकरा आश्रय छेते क्रि

अग्िके सयान सखावर-जङ्गममं॑ व्याप्त यरावानकी उपिध केरनेवे हिंसकं पुरुपका ध्म आश्रय नहीं करता। ( वही; ११३ )

वेदेप्रणिहिती धर्मो द्यधमस्हद्‌ विपर्ययः ( शरीमद्भायव। धद कुछ कदा गया टैः बद्‌ धर्मं है; उक्ते विपरीत सव कुक अधमं दै ।' | विहितक्रियया साध्यो ध्॑ैःुंसो गुणौ तः। |

प्रविषिद्धक्छियाक्षच्यः

मृणोऽद्मं उच्थते॥ | ~ | ( घ्यदीपिका ) |

धशास्र-विदित क्रिया-साभ्य गुणका नास धं दै, प्रतिषि क्रिया-खाध्य गुणका नान अधर्थद | |

| |

एक एव सुहृद्‌ धर्मो निधनेऽप्यनुषाति यः। ज्॒रीरेण समं ना सर्व॑सन्यन्त गच्छति | ( शितोषदे, | मनष्यका धमं दी एकान खद्‌ दैः मरयुकै पश्च? ओर कोई उसका अनुगमन नदीं करता, एकमात्र ध्व अयुगगन कर्ता है }2 भर्म अथै, कान ओर मोध--- दन चार युच्पर्थ घम दी ब्रम प्रधान पुख्या्थं श्रीमगवानते कडा है- भयान्‌ सख्धमों विगुणः परधौसस्ु्ितात्‌। स्वधमे निधनं श्रेयः परधम भयावहः ( गीता २५॥ उत्तम ॒रूपसे. अनुष्ठित प्ररधम॑की अपिश्ना स्वधमं > सङ्गदीन भी दे तेशरेषठ दै खर्म मृत्यु सी प्रवहः कधी

तर ~ चम #

९9

~ ~थ

दिव ननि उस स्वगादिकी प्राप्ति दती दै ] परधयं भयानक दैः क्योकि वह नरकम ठे जाता दै ।›

~

यरतोऽस्युढयनिःश्रेयसलिद्धिः

1

वसः वैदोपिकदरदान ) “जिससे सम्ब्रू सांसारिक उन्नति ओर मोक्च अर्थात्‌ परमा्थकी प्राति दोः वही धर्म धर्मदाव्दका पर्याय है पुण्यः श्रेयः सुक्रृतः ब्रूष ( असरकरोप्र )) आचार, उपमाः क्रतु, अहिंसा, उपनिषद्‌ ( मेदिनी कोपर ), सत्सङ्गः

ध्यक

न्य्रक्रिः सवमावः

सोमप

[भ

अहन ( हेमचन्द्र )

अनन्त जो लक्षण कहे गये

त्रित करना मनुष्यके पमे जिसे सांसारिक उन्नति

वदी धर्मद

वराको वात नहं है

आर परमार्थकी प्राति हेती है भारतके नरनारीके जीवनका भगवत्स्नत्कार दैः इसका उपाय शच्च है जो दृतापूर्वक सख्छक्रा अवटस्वन करता देः वहं जीवन-संग्रामसं विजयी होकर निश्चय ही श्रीभगवानक्तो प्राप्त होता है आज कटियुग के मोदान्धकास पङ्कर अधिकरंस द्योग पथभरघर हौ रदे है फेदिक सुखके सिवा ओर मी कुक दै, इते वे नही जानते शस््रानुकू आचार-ध्मका त्याग करनैके कारण अशान्तिरूपी अनलकी ज्वाला चलुर्दिक्‌ प्रन्यछित दो रदी दै मर्यकर कलने दे शाल्लानुकूख

पएक्रसात्न

लक्ष्य

समसत यास््रीय धर्भकरो ग्रसित करदा दै आचारपाटन करनेकी साम्य भी मनुष्ये नदीं हे केवर मोगनदी-भोग है अशास्ीय भोग रोगरूप होकर दारुण संताप दे रहा इस अधर्मे महाष्ठावनते कैसे सानवकी रक्षा होगी | आज धर्म॑की उपेक्षा हो रही दैः पद्‌-पदपर धाक लोग लाज्छित हो रहे है क्या दोगा क्या होगा मय नदीं दै भव नदीं श्रीभगवान्‌ कद रे है- - यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युस्थानमधमेसख तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्‌ परित्राणाय साधूनां विनादाय दुष्कृताम्‌ धमेसंस्थापनाथीय सम्भवामि युगे युगे ( गीता ७-८ ) दि भारत | जव-जव धमकी ग्लानि ओर अष्का प्ादु- भाव होता हैः तवतव मँ अपनेको सृजन करता रं साघु- जनकी रक्षा ओर दुष्कमीं लोगोके विना तथा धर्मकी स्थापनाके ल्थि युग-युगम ( तत्त्‌ कामे ) अवतीर्ण होता ह|:

दे खधरमं ओर यान्नीय आचारे पाटकर सजनवरन्द्‌ | आपलोग मयमीत भगवान्‌ है वे धर्म ओर धार्मिक लोरगौकी रश्नाके यि इस मदयुलेक् अवतीर्णं होते |

काय-मन-वन्ननसे उनका आश्य लेनेपर्‌ मनुष्ये सारे दुःख निन्त हौगे दी | उनके श्रीसुखकी वापी हन

मन्मना भव मद्धक्तो मद्याजी मां नमस्कु

ससेवेण्यसि सत्पं॑ते प्रतिजाने प्रियोऽचि से सवेधमोन्‌ परित्यज्य सामेयः शरणं जज

अहं त्वा सवैपापेभ्यौ सोक्षथिष्यासि मा शचः ( गीता १८ ६५-६६ } दे पाथं ¡ ठेम सद्तचित्त दौ जा, मेरे भक्त बन जाओः गेरी प्रीतिक्ते व्यि यज्ञादिक्रा अनुष्ठान करो तथा मुञ्ञको नमत्कार करो; इसमे युङ्ञकरो दी प्राप दोधय ठुमते यं सल प्रतिज्ञा करके कहता द; क्कि वुम मेरे अल्यन्त प्रिय ठ॒म सरे धर्माधर्मकास्याय करके एकमान्रभेरे शरणा- पन्न हौ जास ।( सवर प्रकारके कर्मकरा व्याग करमते पीड कदीं पापन दीः इस मयते ) ठम योक करना सै तुमको सत पासे युक्त कर दगा | वे दी शरीदधकके रूपमं श्रीसद्धागवतर्मं कल्किा््म संसारे

उत्तीर्णं दोनेकरा उपाय बतला रदे है

ककेद#षनिधे राजन्नस्ति द्येको महान्‌ गुणः कौतनादैव कृष्णस्य शुक्तसङ्गः परं ्रजेत्‌ ते यद्‌ भ्यायतो विष्णुं तरेतायां यजतो सखै; द्वापरे पर्यायं कलो तद्धरिकछीतंनात्‌ श्रीमद्भागवत १२ ५१-५२ ) ोर्पोकी खानि कटिदुगका एकमात्र महान्‌ गुण यह है करि केवल हरिकीर्तनके द्वारा मानव स्ैसङ्ग-बिनिर्धुक्त होकर भगवान्को प्राप्त होता हे सत्ययुगे निविकल् समाभियोगले विष्णुका ध्यान करकः ताम नाना भ्कारके यके द्वारा यशञपुरूषका यजन करके, द्वापरयुगमे काय्‌-मन.वचनपे विष्णुकी पर्तिर्या करके जो फल प्रात होता है, वही कलियुगे भगवान्‌ श्रीदरिक नाम-संकीरतनसे प्राक्त होता ओर वह फल है श्रीभगवत्सा्षाकार- शवरदर्खन्‌ | ` विष्णुषुराणमं श्रीव्यासजी कहते दै - यल्केते दशभिवै्ैस्तरेताया दहायनेन यत्‌ दवापरे यच्च॒ मासेन द्यहोरात्रेण तत्कलौ ध्यायन्‌ कृते यजन्‌ अज्ञसतरतायां दवापरेऽच॑यन्‌ यदामोति तदासोति करौ सङ्कीसयं केशवम्‌

( विष्ुषुराण १६-१७ )

'्सत्ययुगर्म दस वर्ष, तरेतायुगम एक वर्ष, द्वापर

एक मास तपस्या, ब्रद्यचययैः जप आदि अनुष्ठान करयेसे जो फल होता हैः कलियुगे केवल एक रात-दिनके अनुष्ठानं वदी फल प्रात हो जाता है ।'

'सत्ययुगमे ध्यानः तरेतायुगर्य यज्ञः द्वापरस भगवान्‌की पूजासेवा करके जो फर यिलता दैः करिदुगम भगवान्‌ श्रीकेशवक्रा नाम-कीतंन करनेसे वदी फल प्राप्त होता दे \"

केवर पुराणम ही नीः कलिसंतरण-उपनिषदू्भ भी लिखा हे--

द्रे राम द्रे रम राप राम दह्रे द्रे), हरे कृष्ण द्रे कृष्ण कृष्ण कृष्ण्‌ हरे द्रे

- इस महामन्त्रका गान करक व्राह्मण सारोक्यः सामीप्य,

सारूप्य ओर सायुल्य सक्ति करनेसं समथ दता 3 = तता >

सादे तीन करोड़ जप करनेपर सयोरक्त दी जाता ई।

योगसार-लन्त्रम भगवान्‌ श्रीगंकरने जगन्माता पाव॑तीसे खव

व्णंकिं चयि कल्याणकारी---

ह्र कष्ण ह्रे कृष्ण्‌ कृष्ण कृष्ण ट्रे हरे \ ट्रे रम दरे गम श्म रम्‌ तर

_ इस तारक-्रह्यका उपदेश करिया दे।

राधातन्त्र हमारी रमो जगज्ननीने वाडदेव द्रे इष्ण

हरे राम दरे

ह्रे कृष्ण्‌ कष्ण कुष्ण ह्रे द्रे \ राम राम राम दहरे हरे)

---अ्-व्ट->--~

वेष्णवधमं

श्रीमान्‌ प्राणकिरोर गोस्वामी महाराजः एम्‌० ४०, विद्याभूषण, साहित्यरत्न )

( छेखक--धागवताचाय मरथुपाद जीवी चेत॑नाके साथ-साथ उसकी आनन्द्-संवेदना | दद है समस्त स्य? रस, गन्धम निसखच्छिन्न सवराश्रय मकि आनन्दस्वरूपके अनुस्मरणमं विष्णुभावना परमारमाक = ५५९५ समृ्छसित दोती दे तद्धिष्णोः परमं पदं सद पद्यन्ति सूरयः दिवीव चक्षुराततम्‌ ( ऋषवेद १।२२।२०) इस सत्यका आश्रय छेकर वैदिक आराधनाकी प्रवृत्ति

हे वदी वैष्णवधरम प्रमोतिदासिक युगर्मे--

=-=

व्ययः | -- -इस सदामन्त्रका उपदे दिया श्रीसान्‌ श्रीकृणा चैतन्य मदाग्रयुने अपने परिकिरघनन्दसे कदा है-- |

आपन समरे प्रभु क्रे उपदे \

क्ष्ण नाम महामन्त्र सुनह द\्षे॥ ह्रे छ्ष्भ दहरे कृष्ण छृष्म छृम्ण ह्रे ह्रे दरे रम दरे राम रप रम दहरे दरे॥

प्रमु बले कटिराम ण्डु महामन्त्र,

= £ ब्‌ (

इहा जप भिया सब्‌ कस्यि। निबन्ध

शटा दहते स्व सिद्धि दृद्वे सवार 1 सवृष्षण वस द्भ नाहि बिधि आर॥ अर्यात्‌ श्रीमान्‌ महाप्रथ उपदेश देते कि आप सव ले कष्णनाम-महामन्त्रको आनन्दपधंक सुन लीजिये--रे कृण ट्रे कष्ण ०--इत्यादि प्रमु व्रोे कि मेने यह्‌ सहासन सवको सुना दिगाः अव्र जाकर मुक्तमावसे इसका जप कर| इसके खयि कोई दूसरी विभि नदीं दै इसका जप करने सबको सर्वसिद्धि प्राक्च होगी दस भयावह कटिकार्म॒॑श्रीभगवान्करा नास-कीतन | परम धर्म दे भगवान्‌ पुकार रहं दै --“माओः आओ, पापी तापी, रोग-दोकम्रस्तः अनाथ-आतुरः बाल-वरद्धः युवर-युदती, ब्राह्मणचाण्डालः सारे मानव | ठम चदि जो दो, चाहे दण | पाप कितने दी वड क्योन हौः ठम भगवानूका नाम-सण, करो, नाम-सरण करो; व्दारे पाप-ताप, इुःख-देन्य एव | दूर होगे ठम निश्चय दी श्रीमगवानका साक्षात्‌ ददन प्राकर | कृताथं हो जाओगे ठम्दारा मनुष्य-जन्म सार्थक दो जायगा |

धर्मकी जय धर्मकी जय || नाम्की जय ||

|

|

दद॑ विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्‌। समूढमस्य पांसुरे ( ऋऋेद १। २२ १७) इस मन्त्रे तरिषिक्रम वरिष्णुकी सर्वाधिक मिम वैष्णव-भावनाके रदस्यका अनुसंधान करना चादि |

तसु स्तोतारः पूज्यं यथा विद्‌ ऋतस्य गर्म जनुषा पिपतंन। | आस्य जानन्तो नाम चिद्‌ विविक्तन महस्ते विष्णो सुमति भजामहे |

( ऋेद १५६ |

| 1

> वंष्णवलेसं

ना

--ऋग्वेदके इस मन्त्रम वेष्णव-साधनाका मू सोत प्राप्त ता है दे विष्णु | तुम्हारी अनन्त मदिमाको हस करितना- साजानते दै ओर क्या कद सकते हँ वुष्दारे नामक महिमाको जानकर नाम-मजन दी हस करते इसी दमको सुमति प्राक्त देरी संदिताः उपनिषद्‌; व्राह्मणः सूत्र, पञ्चरात्र, पुराणः तन्त्र आदि सवर शाम विष्णु, वैष्णव ओर धर्मकी वातं भरी पडी दं मनुः अत्रि; विष्णु आदि स्मृति्यां विष्णुः नारायणः अच्युतकी नाम-मदिमाः वेष्णदके धर्माचार तथा सामाजिक्र ओर व्यक्तिगत जीवनचर्याकी विस्तरत प्रयोगपद्धति विदटेषणपू्क प्रदर्ित कर्ती दँ |

साण्डिल्यविद्या ओर सूत्र नारद-यक्तिसू्र, सदामारतके नारायणीय ओर पाञ्चरात्रिक व्यूहविचारः, गौतमीय तन्त्र

तथा तपरनी श्रुतिके समन्वयसे वैष्णवधर्मका जो विस्तार ओर जिस वेचिव्यका विकास हआ वह एक

विर्‌ साद्य है

इसको कोद पाञ्चरात्रिक साहित्य; कर्द तान्विकर कहते हे कोई बीदध-प्रमाव वतलते हैँ पता नदीः क्या-क्या क्ते है

वष्णव कते हं कि अनादि वेष्णवध्मं काट-कलन-धमीं युगधमप्रवर्तकं॒सावैजनिक सानव-धर्म॑है श्रीविष्णके चरणाश्रित भक्तोके चयि यहं धर्म नित्य है | देवि नारद व्यासः वाल्मीकिः श्रीशुक आदिने साधनासे, चिन्तनसे भावनासेः प्रेरणासे सुरसरिकी धारके समान सर्वं लोकपावन वैष्णवधरमको भानवके हृदयाज्गणम अवतरित किया है वेद- प्रतिपाद्य यह धर्मं पाञ्यपत आदि धर्ौकि समान शरूत्यवादपर आश्रित मतवादसे प्रणतः प्रथक्‌ ओर तन्व है लैर, शाक्तः शैव ओर गाणपर्य॒निगसते नियन्वित साधनाका जो कम सखमस्छ भारते फीख हुआ उस वत्र विष्णुः नारायणः, यजञेश्वरको मुख्य स्थान प्रास्त

स्मार्त, वैदिकः वेदान्ती, तान्त्रिक या पौराणिक- समी विष्णुभगवानक्ा नामस्मरण करे पवित्र होते ठै विष्णु- भगवानक्रा नामस्ररण करके आचमन करते दै, यज्ञेश्वर पूजा करके अन्य किसी पूजाम कगते है नित्य, नैमितिक्रः काम्य या निष्काम कर्म॑विष्णुको समपिंत दोनेपर ही पूणै फल प्रदान कसते दै; अन्यथा मन्त्रतः या तन्तरतः कोईन- कोई छिद्र दोष रद जानेके कारण सम्यक्‌ रूपसे अनुष्ठित नदीं माने जति

दते ह॑तो कोई पौराणिक ( = भ, तो कदं अवेदिकं आर

२२

थलन्चर्‌, नभचर प्राणिसमृह तथा मानव-- सत्रमं सर्वत्र पए विष्णु ही रुद्यशव-रूपमं प्रविश दै स्थावर जङ्गम उर्न्दकिदी रूप इस रूपका ददान करके उन्द्ं प्रणाम करते |

लवेशतेहु यः पद्येद्‌ भरवद्धावमास्मनः श्रूलानि भगवत्यास्मन्येष भागवतोत्तमः ( श्रीमद्भागवत ११। २। ४५) स्यार जङ्गम देखे देखे तर मूर, जं जदो दष्टे षडे तादो इट स्पू्ति॥ प्रम देवताके मल्यछोकम अवतरणका संदेश वैष्णव- धर्मकी दी देन दै संसारके अन्य किसी धर्मदद्ैनमे इस प्रकार सुस्पष्ट भाषां स्वयं मगवान्‌के अवतारकी वात नदीं है वेष्णवलोग भगवानकी अनन्त टीला, अनन्त धास, अनन्त ओर अनन्त पटिाके सष्वन्धर्म॒संदेहरदहित विश्वास परिचिय देकर प्राकृत ठेोकमिं उसके ददनाथं उदग्रह्टि दते वे सदखयुजावाढठे ई, अष्टमुज रई, चतुभज दै तथा द्विभुज मा हं | अनेक सू उनकी आसधना छती शी, भू? टीला आदिते परिवेवित श्रीनारायणसूपर्म श्रीराम-जानकी युणलसरकारके रूपं, फिर गोपालक्रष्ण, गोपीजनवव्लमः राधा-श्यामसुन्द्र खरूपं आराधित यहं खाधनाका क्रम अनादि काल्से चखा रदा है। इसको एतिहासिक विचारसरणि्मे खाकर जो इते किसी देश-काल्मे या किसी मानव-समाजके द्वारा ख॒ष्ट बतल्मया जाता हैः उसे वेष्णवगण नदीं मानते श्रीभगवानका रूप नित्य हैः पारष॑द नित्य हैः धाम नित्य है ओर उनकी टीला नित्य है समय-समयपर उसका प्राकट्य ओर अग्राक्य, आविभाव ओर तिरोभाव होता है प्राङ्घत विश्वस्वनाके पूरवाह्मे दी परम पुरुषकी तपस्या कामना दक्षणकी बात, भीभगवान्‌के आविभावके सम्बन्धं सपान्तर्कथ्‌ा तथा युराणसंदिताम॑निव्य आविभौवकी सूचना मिलती दै संष्िके प्राक्‌काल्मे मनु-शतरूपाकी तपस्ये श्रीभगवानका आविभावः श्रीमगवानके नाभि- कमल्से ब्रह्मकौ उत्ति, प्रज्यपयोधिमें शरीकृष्णकरा प्रवाहित होना आदिमे अनन्त देवकी अनन्त लीलाओंके संकेत मिर्ते रष्णव्रगण लीराकेवस्यवादके ऊपर सखष्टि आदि व्यापार तथा जीवक परम पुरुषाथकौ प्राधिके सम्बन्धे अपे विचारोको प्रतिष्ठापित कसते दै शवेतद्रीपसे काटिन्दी.- करके निकुञञ-योगपीठतक ओर क्षीरोदसागरे कारण- ठमुदरपयन्त सवे श्रीमगवान्‌ अपने निव पार्षद्‌ भक्तौकिं

1

द्वारा परिवेष्टित रोकर साधक वैष्णो अभीष्ट प्रदान करते विष्णुरेव हि -यस्येष देवता वैष्णवः स्तः -लिद्गपुराणके इस वाक्यके अनुसार श्रीविष्णुके आराघक वेष्णव दं ओर भी विदेषरूयसे कदा गया दै--

गुदीतविष्णुदीश्चाको विष्णुपूजापरो नरः वैष्णवोऽभिदहितोऽभिज्ञेरितरोऽस्माद्वेष्णवः

[९ [य गो

वेष्णव दीक्षा लेकर श्रीविग्रहकी सेवा करे श्रीगौराङ्घ महाप्रमुसे कुखीन आमवासी पूछते “वैष्णव कौन है प्रमु पदे कहते दै

जि सुखे एक बार सुनि कृष्णनाम \ = < सद्‌ वेष्णव्‌ तोर करओि सम्मान 1

दूसरे वधं भी अआमवासि्ोने वेसा दी प्रक्ष फिर क्रिया इस बार गोराङ्खने कटा--- छष्ण॒ नाम्‌ निरन्तर हार बदने \ सेई वेष्णय श्रेष्ठ, भज तोदयारं चरणे तृतीय वष पुनः यदी प्रडन करनेपर महाप्रभुने उनसे कदा-- जहार दने मुखे आद्रे इष्णनाम्‌ \ तहरे जानिओ तुमि वेष्णव-प्रघान

इस ग्रकारते भागवतगणक्रा तारतम्य शाख वणित दे त्ष्णव निरभिमानी होते दै व्णाश्चसके कारण उच्च या नीचका को विरोध उनमें नदीं होता वे कोग॒कुल-गौरवः बिद्या या धनकरे मौसखको वच्छ जानकर सव अवस्थाओंमे अपनेको खवक्रा सेवक समक्चते दए सवका सम्मान कसते दँ ब्राह्मण कुर्म जन्म छेकर भी आमिजात्यदीन वैष्णव जानते है कि भजनके प्रभावसे दीन ऊर्म उत्सन्न व्यक्ति भी सर्वपूज्य दो जते दै अन्तनिंहित गुणक परमोककर्षका आविष्कार ही तरष्णव-जीवनकी साथ॑कता वैष्णवका देह भगवानका रथ दैः हृदय उसका ¢. प्रत्येक अद्ध दसिमन्दिर है, पदत्ारण परिक्रमा है वाणीम नाममन् डेः दृष्टम प्रेम हैः व्यवहा पूजा दः दनम भविचता दै ओर देवाँ भगवत्सानिध्य है सव्यनिषठाः शयः निरभीकताः दन्यः कारुण्य उनके अङ्गके भूप्रण द| मरन वेष्णवोका नाम-स्मरण करके मै उनको प्रणाम करता ``

्रह्वादनारदपराशारपुण्डरीक- ञ्यासाम्बरीषश्यकरौनकभीष्मदारभ्यान्‌

* धर्मा रक्चति

ज~ ----------- ~ पवय यः

2)

= 9 =. =

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स्क्माङ्गदाछनवशिष्विभीषगादीन्‌

पुण्याद्िमाय्‌ परमभागवतान्‌ नमामि

देवं नारद भक्तिम्रवर्चक गुर दै ओर प्रहाद्‌ रिध दे रलो प्रह्णादका नाम सर्वप्रथम उल्छेख करना तासषै | पूर्ण दे भक्तिकी प्रबटताते रुरु-दिष्यम लिष्यका नाम्‌ अधिक्र आदरणीय साना गया दै, दैत्यकुखमं॑ जन्म केनेए्‌ भी इसमे बाधा नदी आयी सक्तिनिष्ठा, सदाचार, विश्वास ज्ञानः परिचर्याः प्रेमः शुश्रूषा; चारित्रिक दृद्ताः त्याग संयमः निभैरसीर्ताः सकषम, शरणागति आदि सदतं भक्तौका आश्रय टेकर नित्य सपरज्ज्वल हो रदी दं

4

14;

वै गव-साधना सार्वजनिकः सार्वदेडिक ओर सार्व॑काच्छि

सब्र लोग परम पुख्पोत्तमकी सेवके अधिक्रारी ई। | अतएव वैष्णव भाव अनुीटनके योग्व दै दूसरी साधना. | ओंम योग्य ओर अयोग्यका विचार टोतादै। अवोष, माना जाता हैः उसका प्रवेश निषिद्ध देता दे वेष्णवका द्वार पतितः, अधम, अयोग्य--समीके ल्य खुरा दै | जिस्‌ दिन गवाना नाम ्रहण क्रिया; उसी दिने बेष्णवः | साधना आरम्भ हो गयी जितनाजो कुछ दोता दै, स्र

जसा होता जाता दैः जरा-सा भी नष्ट नहीं होता | अति चय साधनासे बहुत लाभ होता दै जिस दिन तनिक भी भ्त सङ्ग हुआ; जिस दिन साधुका चरणस्य प्राप्त चा | नामकी ध्वनि कानमें परटुची, उसी दिनसे मक्तिका आमष पाकर भगवान्‌ संव॒ष्ट दो गये बलदेव विद्यामूषणकौ भाषार्म--

भक््याभासेनापि तोषं दधाने | धर्माध्यक्ष विश्वनिस्तारनन्नि | नित्यानन्दाद्वैतचेतन्यरूपे |

तत्वे तस्मिन्‌ नित्यमास्तां रतिनैः

वैष्णव विश्वासमय जीवन यापन करते दै विश्वस भगवान्‌ अपने भक्तको वञ्चित नदीं करते अति अद्य. | साधनभे ही उनकौ प्रीति प्राप्त होती है | प्र पुष्पं फलं तोयम्‌*--यदि पः पुष्पः फक्के आहरण श्रम होता हो ती अनायास लब्ध जल्ते भी उनकी प्रूना दो जाती दै जलस्य चुकेन वा"--एक चुल्‌ जके प्रदान कसनैपर मी श्रीभगवान्‌ मक्तके सामने ऋणी होकर आतमविक्रय कसते छष्णके तुरुसौ जक देय जद जन 1 |

तार ऋण शोधिते कृष्ण करेन चिन्तन

9 >: वष्छतधञ्च >

तुरी ज्केर भ्व तु माल [4 अतद्‌ आल्‌ तेच

नैष्णवशरीसम विष्णुभगवानकी युणावदी संक्रमित दती वेप्व क्षमाद्यीकः दिंखारदितः सदिप्णुः, सत्यप्रियः निर्मल) समभावः निख्पाधिः कपाटः अक्षुच्धः सिद्धिः संयतेच्ियः कोसटस्वभावः पविच्न, अकिंचनः कामनारदितः मिताहारी

शान्तः रार्णागतः अप्रमत्तः गस्भीसदावः निरधिमानः

[~प =

सम्मानकारी, वन्धुपाद्रापन्नः करुणस्वभाव तथा सव्यद्रष्टा

हते श्रीमद्धागवतकी मापा ( २९-२३१९)-- छृभालयुरङ्तद लतेदेहिनाम्‌ रत्यसारोऽनवयात्सा समः सर्तौपकार्कः

अनीहो न्नितसुक छान्तः स्थिरो अच्छरणौ सु अप्रमत्तो गंभीरात्मा तिसाञ्चदपद्धणः ! अासीि पआआलतं मश्रः कारुणिकः किः देभाल्यक् उत्तुङ्ग शिरिरशिखससर स्थित ददस्किा ¢. प्रमकी वेष्नवीचाराये अभिपुष्ट भावप्रवाह पुशाण-संदिताः

ब्रह्यसत्रको वादन बनाकर नीचै उतरी प्राङ्गणं मनने ( १। १० ) काद

: पुण्य भारतकते

हति श्रो्ा सापो नरस्पूनव

ष्ट ५44 १६९. <. र्म्रतः जीवा परस आभय

श्रापौ नारा तता प्रबुखखायनं पर्ल सन नरायण-नासका तायं निखिल दै उरी नारायणके चरका आश्रव केकर वैष्णव- भाव्रषारा कैल गयी दै -उनत्तरभारतको श्ापित करके दष्षिणर्मं॑ सुदूर सागरतटतक शआनवमान्नकै कस्याणके टि क्ति-बीजका वपन करके ल्यि } उसीके च्वल्ध अशभत अच्यूलार संतः साधकन्युडामणि तथा सश्चत मव्रनाके प्रतीक परम आग्चायोका अभ्युदय हुमा प्राचीनं दान्चैनिक सतवार्दौकी अभिनव योजना करक वैष्णव-दक्ष॑न समूद्ध हे परसाणुदादी वैरोपिकका धविद्लोष" सांख्यदशनका। (्त्वसंख्यान% परम नैयायिकौका युक्तियुक्त (अनुमान; वौगसा्कोक। योगः, पूव॑मीमांसकौका द्देवताखण्ड, ओर बेदान्तर्योका “सम्बन्धाभिधेय-प्रयोजनः- ये सभी वरेष्णव-जिज्ञासार्मे यथाथोग्य मःपदासै युक्त स्थान प्रात कर समन्वित गये | विभिन्न प्रकारके तवाम परस्पर मतमेद होनेपर भी कैष्णव आचार्यं एक अभिन्न परम पुरषोलतमकै संबानगे परत्र देए दै |

गारायणः

पट-

२१

श्ीसमानुजः निष्वाकंः मध्वः विष्णुखामी, वस्कमाचायंः चलदेव विद्याभूषण आदि आचार्योनि वेदान्तसू्ौपर भाष्य के दादैनिक व्रिचारको प्रतिष्ठित किया ह| प्रधानतः उनके भव्यम अनात्मा जड-जीव ओर जीवात्मा, परमात्मा परमेश्वर ओर उनके निस्य पाष॑द भक्तौको ठेकर विन्चार क्रिया गयादे] दसस ख॒ष्ट जगत्‌, खषा परमेश्वर ओर आराधक्र जीवका सस्वन्ध-निरूपण करनेमे विभिन्न प्रकारे मतवाद्‌ प्रकट दए दै श्रीरामानुजका विदिषद्रैतः श्री- निग्वाकरका दवैतादधैतः श्रीमध्वकरा द्वितः श्रीवल्कमका शृद्धादरेत ओर श्रीवल्देवका अचिन्त्यमेदाभेदवाद्‌ वैष्णवगणके चयि विचारणीय इन्तरे व्रिपयस आलोचना करनेका यँ आवकार नदीं दै य्ह तौ देखना है करि आचार्यं रामानुज प्रम धर्मके सम्दन्धर; दरणागतिके विषयमे क्या कहते है--

श्रीमक्नारायण अश्षरणक्षरण्य अनन्यद्चरणं स्वत्पदरार्‌- विन्दुयुगरं करणस प्रपश्ये

स्वैधर्माश्च संत्यज्य सर्व॑श्ासांश्च क्षरम्‌

सोषविश्ान्तचरणौ शरणं तेऽत्र विभो

जिसका कौ नर, है नाराधण } प्कमाव्र त्हीं उसके हे मेरा भौर कोद नदीः ओर कुक भी नदी हे म्हारे पदधुगच्ये मने क्षरण ले ली आच्रायं निग्नाक्तं भी कहते द-- नान्खा गतिः पष्णपदादरिन्ात्‌ संदरेयते नह्यकशिवादि न्नित श्रह्यादि दैवगणके द्रवाय वन्दित श्रीकृष्ण -पदारविन्दकै सिवा ओर कीं मी गति नहीं देखनेभे आती ।' ओमष्वाचा्य कहते -- श्मीमन्तं तञ्ुपाखडहे खुमनस्ाभिषटप्रहं विद्र :खाद्ुजनक्े मङ्गलायतन श्रीमान्‌ विडल्देवकी यै उपाखना करा द्र श्रीवछ्छमाचा्यने “श्रीकृष्णः शरणं मम, दासोऽहं श्वीकरष्ण तवि" कटकर सम्यक्‌ शरणागतिका उपदे दिया

दे बलदेवे विद्याभूषण प्राथैना करते हुए कहते है -

ससुद्ष्त्य यो दुःखपङ्कात्‌ स्वभक्तान्‌ नयत्यच्युतश्चिस्सुखे धाम्नि नित्यम्‌ प्रियान्‌ राढरागात्‌ तितसार्॑ विमोक्त न॒ चेच्छत्यसावेवे सुजनर्भषेभ्यः

धजो अपने भमक्तोको दुःखपङ्कमं उद्धार करके

दय

~-------- ~ ~ = ------------

चिदानन्द्मय निज नित्यधाममे चखा लेते दहै तथा प्रगाढ अनुरागवदा उनकरौ क्षणमाच्रके ल्विि मी छरोडना नदीं चाहते

पण्डित लर्गोको उन्दी अच्युतकी आराधना करनी चाष्धिवे ।'

श्रीरामानुजाचा्यंके आराध्य गङ्धंचक्रगदा-पदचधारी चतुभज श्रीविष्णुं भगवान्‌ दै, ओर सभीके आराध्य द्विभुज श्रीकृष्ण गोविन्द्‌ गोपाकू श्रीरामानन्द्‌ द्विमुज श्रीरायके उपासक त॒रसीदासजी भक्ति-मावते कहते -

अस॒ प्रभ, दीनर्नृघु दरि कारन रहित दारः ¦

तुरकषदास सट तेटि भन्‌, छडि कष्ट ज॑ना

सवा्गे हरिमन्दिर-स्वना, चक्रादि चिह नामाङ्कन-धारण वलसीमालाः कण्ठी, नासजप-माला आदि धारणः, महाप्रसाद. भोजनः आमिषरत्यागः वतुकसी-सेवनः धाममँ वास, श्रीरुख ओर विग्रहकी सेवा, नित्य भागवत-रामायण आदि शाखोका पाठ तथा श्रवण, स्तुति-पाठः वेैष्णवाचास्का पालन, नास- संकीतैन सभी सम्प्रदायोमे नित्य-कर्तव्य माने गये भक्तिके चौसट अङ्ग दैः परंतु कमसेकम नौ अङ्गः अथवा किसी भी एक अङ्गके साधनसे भी जीव कृताथ हो सकता दै श्रीरामानुजाचार्यने जिस प्रकार शरणा- गतिको प्रधानता प्रदान की दैः त्रजवासीगणने उसी प्रकार सेवा-ससलकी प्रभानता स्वीकार की है पुषटिमारगका अवलम्बन करनेवाले भीवछमाचायेके अनुयायी प्रीतिपूेके श्रीविग्रह ओर गुख्की सेवा करते दै श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रसुकी पासे परिपुष्ट श्रीरूप-सनातन आदिं तरष्णव- गुख्जनेने वगाः श्रीक्चेत्र तथा श्रीडृन्दावनको एक अखण्ड प्रेम-सूत्रम अधितकर भारतके एक श्रान्तसे दुसरे प्रान्ततक श्रीदस्नाम-संकीर्तनको दी कलियुगर्मे एकमात्र साधन ओर साध्यकरे लिद्धान्तके सूपे प्रचारित किया है

श्रीमद्भागवत ( ११ ३२ )का सिद्धान्त है-- कृष्णवर्ण स्विषाङ्घष्णं साङ्गोपाङ्गाखपाषेदम्‌ यज्ञैः संकीर्ैनप्रायैरयजन्ति दि खमेधसः संकीर्तन प्रवर्तकं श्रीकृष्ण चेतनम \ संकीर्तन यज्ञे तरे भजे सेद धन्य भगवान्‌ श्रीक्कष्णचैतन्य महाप्रुने सं कौतैन करके शिश्वा दीदै-- रः ह्रे छष्णः हरे कृष्ण इष्ण कृष्ण हरं दर ह्रे साम हेरे राम राम राम हे दरे

|

-------- ~

¢ धमां रक्षति रक्चितः #

-- ---------~ च्य | ~ ठकरि नामरूपे कृष्ण अवतार म्‌ +लगन नाम देत सवेजगत्‌ हय त॒ चिर ]

स्वरूप दायोद्रके प्रदनके उत्तर रस्भीरा्यै खवस्थानके समव श्रीमहाप्रसुने कदा था

शुन स्रूप्‌ शम्राय नामस्ंकी्तन कठ परथ उपायं \

षएंकीतं = (~ त्कतिन्‌ य॒ज्ञ क) ष्ण अरान्‌)

कड त॒ सेधा पाय कृष्णे

'ष्एष्र्‌

(न र. [त णि {कार पमि विष्णु-मन्दिरनिमाणः देवताप्रतिष्ठा, प्राकार विमान ~ दिकः) ~न { = -, ~ == => भारतीयं आद्क। सल्याः उता विस्तार जादिकेः सष्दन्धर्दे भारतीय

स्थापत्यर्यं तरिराट्‌ साहित्य विद्यमान दै शाख्ानुमोदित दे

कार आदिक्रा विन्वार्‌ करके देवताकी प्रतिष्ठा ओर अर्चने

प्रवत्तैन्र कितने नये-नये तीर्थकी खष्टि वे्णवेनि कीर इसकी गणना कौन कर सकता दै मन्दिरमय भारतवर्षे विष्णुमन्दिरौकी संख्या सवापिश्ा अधिक दैः यद कने अत्युक्ति नदीं दै आधुनिक मन्दिरमे प्रा्वीन गोपुरे अवस्थित देवी-देवताओंकी मूर्त्य प्रायः डस हौ रदी हँ ओर उनके स्थानम अधिकार कर लिया दै सन्दिरकी दीवालपर साधु-संत मदापुरुषोके चिवोने किसी.क्रिसी स्क दीवाख्म गीता-भागवतके शोकं भी उत्कर्णं देखे जति ये सव भन्दिर आगे साधर्कोको शाख्ानुीकनकरे यि प्रेरणा प्रदान करेगे--यद आशा की जाती है| उत्तसमर बद्रीनारयणः दश्चिणँ विटोकाः, तिरुपतिः विष्णुकाञ्ची, वरदराजः पश्चिममे सुदामापुरी, बेर द्वारका, समृद्रके तपर पुरषोत्तम नीटाचल्नाथ, मध्यमारतमे अयोध्यायै श्रीरामः मधुरा-वरन्दावनमँ श्रीकृष्ण तथा उन्हीके विदोष आविर्भाव नदियाये श्र्ष्णचेत्य इस वैष्णव -भादधाराके उच्छवासमे केवर धर्म ओर धार्मिके ही नी, वच्कि कितने गुणी? ञानी, | शिस्पकार ओर कविवोकी मानसिक यक्तिका--मनोराव्यका विकास हुआ दैः इसक्रा इतिहास कौन छिखिगा भारतीय साहित्यको वैष्णव कविर्योनि जिस प्रकार संजीवित, सरषित ओर समृद्ध बनाया ई, उसके प्रमावने भारतकी प्रलेक भाषाके उपर अपनी छाप लगा दी है दिल्टीके समीप सूरदास; महाराष्ट सानेशवरः नामदेव, तुकारामः गुजरातमे नरसी मेहता, राजस्थानय मीरोबाई, असम प्रदेशमे शंकरदेवः वज्ञे जयदेवनचण्डीदास, मोविन्ददास; मिथिलामे विचापति, उदगीसामं जगन्न यदास--ओौर भी कितने वैष्णव कवियोके काव्यः पद्‌, पदावलीः दोहा; सोरठा, ओषी

८८५५५. =

> चामिंक . एकता

ददे

"=-= =-= == === === === च~ ----------------------~

ओर अभङ्गोके दारा परमदेवताकी मदिमाका वर्णन हा हैः उसकी सीमा नदीं हे

वेष्णव-शाखन-मन्थन करके जो विभिन्न मतवादौकी समालोचना तथा सिद्धान्तोके प्रचारक दारा भक्तिर्मे उत्पादन करते दैः वे मानव-खमाजके परम वन्धु उनको प्रादेशिकताका विषवाष्प कमी स्पर्चं॑नदीं करताः भाषाकी सीमामे उनकी मावधारा अवरद्धं नदीं रहती; देशाचारका रूपान्तर उनके हृदय भावान्तरकी सृष्टि नदीं करता भक्तिकी कथा--चाहे वह संस्कृतः हिंदी; मराटी; गुजराती, तमिव; उडियाः, बंगाली, असमिया आदि किसी भी भाषामे दो--दरिकिथा वैष्णवके छि परम आदरणीय दै वैष्णव माषाका विरोध नदीं करता एकनाथ सहाराज कहते दै--

८०५४ 6

आत संस्कृता क्रंवा प्राकता माषा द्वारी जे हरिकथा \

ते पाबनन्वि तत्तत सत्य सर्वथा मानक संसृत या जो कोई प्राकृत भाषा दोः दरकिथा उसका

गौरव दै साधुगण इस प्रकार सभी भाषाको सम्मान

प्रदान करते भाषाकी सप्ति दै दरिकथा, वैष्णर्वोकी सम्पत्ति है-दरिनाम-दरिभक्ति। वैष्णव-सादित्यमे भक्त-जीवनकी कल्पना, कटानी ओर प्राधिके आनन्दन मर-जगत्‌म अगृतथाम- को प्रतिष्ठित किया दै व्रजलीला संकीर्तन-मण्डल्ते आखवादनीय दो गयी है वैष्णवगण सम्मिलति खरसे दरिनाम संकीर्तन करके नित्यधासके माधघु्थके रसम मय हो जते वेष्णवध्मं इस प्रकार प्राकृत लोकै भी चिन्मयराज्यका विस्तार करता दै अनुरागीके अनुरागसे अतएव प्रबोधानन्द्‌ सरखतीकी माषामे प्रार्थना है - दन्ते निधाय तृणकं पदयोर्निपत्य क्रत्वा काङुदतसरेतदहं व्रवीमि दे साधनः सकरमेव विहाय दृराद्‌ ौराङ्गचन्द्रचरणे ऊुरुतालुरागम्‌ ( श्रीचेतन्यचन्दरासृत ) ष्द्िम तृण दवाकर चरणोम गिरकर शतवार विनयपूर्व॑क प्राना करता हह साधुगण | ओर सत्र कुछ दूरे दी व्यागकर श्रीगौराङ्गचन््रके चरणोमं अनुरागी हो ।*

धाक एकता

( ठेखक--स्वामीजी श्रीरापदासजी महाराज )

संसारम अनेक धर्म, नाना मत ओौर अगणित सम्प्रदाय प्रव्यक्षतः उन सवका उदेश्य एक दी दै- मानव-दृदयमे परस्पर एक आध्यात्मिक सम्बन्धके वोधको--मानवमाचके प्रति भ्रात्रभावना ` भगवान्‌के प्रति पितरभावना अथवा मातृ- भावनाको जगा देना परंतु वास्तविक धिति क्या है एकताः प्रेम ओर भ्रातृत्वका पोषक वननेके स्थानपर वे मनोमाटिन्य भडकाने तथा मानव-मानवके वीच पारस्पखि सम्बन्धोको तोडने व्यस्त ओर आश्च्वकी वात दै किं यह्‌ सवर होता दै भगवान्‌के नामपर

वडे-बड़े आचार्य, जिन्न भगवान्‌के प्रकादाको मनुर्योके ृदयतक पर्हुचायाः किसी एक धर्म, समाज, मठ या मन्दिरके दोकर नदीं रहते ये सारा संसार दी उनके ल्यि मन्दिर था ओर उनके भगवान्‌ सभी प्राणियों तथा जीवोके हृदयम विराजमान रहते थे इसीय्यि उनका स्नेद मनुष्य कृत मतो ओर वर्गोपर विशेष ध्यान दिये बिना सबके ऊपर खमानरूपसे वरखता था वायुकी मति उन्मुक्त था उनका

४९ © ५--=

प्रेमः सूयैके प्रकादाके समान विश्व्यापिनी थी उनकी दृष्टि ओर मानव-नातिकर प्रसेक व्यक्तिके ल्य समान थी उनकी सेवा

पार्थिव प्रसुता ओर गौर प्राक्त करलेके स्यि संसारम संघर्ष, संगर ओर संग्राम मच रहा है इन उदेश्योके पीठे दोडनेवाटे जन वास्तवम अपनी अधःपकरूति अथवा अपने अधम अन्तःकरणकी प्ररणाओंके शिकार वन दे दै किंतु उनके विषयमे क्या कट्या जायः जो उपद्रव, दिंसा तथा दुःखकी खषटिक्रिया करते ओर वह भी उन भगवानके नामपर जो पूणे प्रेमः कर्णा ओर चान्तिके खूप है

पुनः कुः वैभवः मर्यादा ओर जातके अभिमानियेमि जिस प्रकारकी बङ़प्पनकी भावना व्याप्त रहती हैः वैसी ही बात संसारके महान्‌ आचायि अनुयापियेमे भी देखी जाती वे कते है, केवर मेरे गुर दी पूर्णावसाको प्राप्त है ओर आपको मुक्ति केवल उनके दी अनुसरणसे प्राप्त हो सकती दे मेराही ध्म सचा धर्म है ओर अन्य धर्म मिष्या

% धमो रक्षति रक्षितः #

-------- | पार कर रहा है इस समथ हम सवके चये शोभावी यही दै कि दम अपने क्षुद्र विरोधोको जटमग्न करक एक सष विं्वनियन्ता भगवान्‌कौ ओर अपना हृदय उठाकर संसारो |

-"~---------

केवल मे ही सभ्य सानव हूः रोष सवर अनीररवादी ओर धर्मविरोधी दै ।› जबतकं धर्मधुरधर के जानेवालेमे इस पकारकी भावना अपना अड्डा जमाये दु दै, संसारम

एकताः एकस्वरता ओर शान्ति लनेकी अपक्वा वे केवल

वैमनस्य ओर विद्रोदका दी विस्तार करते ह| भगवानकी धारणा ही सार्वभोम्‌ समन्वय जर शान्तिके सिद्धान्तपर आधारित है भगवान्‌ ओर मानवताका सचा सेवक दै वदः जिसने इस सत्यको हृदयंगम कर छया दै जो भगवत्पेमकी एकसूत्तमे बोधनेवाली शक्तिको जानकर अपने साथी सभी मानव-समाजको भगवानके एक॒ परिवारका सदस्य मानता दै वह सवम भगवानके दर्शन करता है इसी सथितिमं उस>े हृदये पावन प्रेमकी बाद जाती है 1 इसी स्थिति दिव्य ज्योतिसे उसकी ओष चमकने र्गती ओर अन्तर्यामी भगवानके चर्णोपर उसका जीवन न्योछावर दो जाता दै सम्प्रति इसी प्रकारे आध्यात्मिक जागरणकी आवस्यकता है मनुष्यको अपने हृदयको शुद्ध करये उसे दिव्य प्रेमसे ओत-प्रोत कर लेना चाहिये ओर उसकी जीवनसरिताकी आनन्दमयी धारा ॒दुःखाक्रान्त मानवताकी सेवा अनायास प्रवाहित होती रदनी चादिये नामकरणः नामोल्टेखः संस्था ओर समाजकी महत्ता गोणसानीय है देवी सत्ता जिसे चदे भगवान्‌, सत्य या वास्तविकता करैः उसके द्वारा हमारी आत्मा इस प्रकार अभिभूत दो जानी चाहिये किं हम उसकी सत्ता विलीन हो जार्ये ओर उसीके नाना स्वरूप बन जार्ये भगवान्‌ श्रीक्ष्णः बुद्ध एवं अन्यान्य महापु रर्षोको मदान्‌ आदं मानकर केवल दूरसे उनकी पूजा कर लेना दी पर्याप्त नदीं है हमको अपने जीवनको इस प्रकार रूपान्तरित करना होगा किं हम भी उनके समीप पर्हुच जर्वे उनकी ऊंचाईतक उठ जार्यै ओर अपने यथार्थ, दिव्य एवं अमर खरूपको पहचान भीतरसे तो प्रत्येक आत्मा भगवान्‌के प्रकाश ओर आनन्दम स्नान कर रदा दै इस महिमाको य॒दि जान ठतो दम संसारम शान्ति ओर सदूभावनाको बुला सकते दै, अन्यथा नदीं मानव-ृदयको स्पशं करनेवाखाः ङ्चा उठानेवाखा ओर सूपान्तरित कर देनेवाखा ज्वलन्त ङदाहरण बने व्रिना कोरे उपदेशौसे कुछ उपकार होनिका नदीं युद्धोके कारण संसार एक भयानक यन्वणाके कालको

(= = च्वि ४३ दान्ति ओर सदूभावनाके ष्ि उनसे पाथना करं भगवान्‌ ओर उनकी लीलाको समूर्णरपसे जान लेना हमारे अधिकारे |

बाहर = उनके ~ = जं [= हरकी वस्तु है उनके विषयमे जो सीमित ओर

धारणाएट हम वनाते दै, उन्द लेकर हमें र्डुना नही चादि |

दम इतना जानते है कि भगवान्‌ सर्वशक्तिमान्‌; सवं वः ४९ ओर सर्वैकरणाकर दै हमे चादिये कि हम अपने हृदयका

द्वार मुक्त कर दे, जिससे उनकी शक्ति ओर कृपा हमारे भीतर जाग उठे दरम चाहिये कि हम अपनी इच्छाको उनके

चरणोंम विीन कर दै, जिससे वे हमको अपना यन्त्र वना सके मारी क्षुद्र सत्ता उनके जाल्वल्यमान सखरूपम समा |

जाय | उनके नामपर हम संसारके सद ठोगोको प्यार करे

दुःख ओर सोकर्मे पड़े हुए स्व ठोगेके प्रति दया ओर,

सदानुभूतिसे टमारा हृदय द्रवित दो उदे दम उनके ऊपर

भगवानकेे वरदानका आह्वान करे उनके दिव्य गुणोको

उत्ताधिकारमं मातर हम भगवानकी सव्ची संतान बनें | परमातमाका संदेश संसार प्रसव-पीडासे तड्प रहा है-- एक नया जन्म देनेके स्यि, एक नवी सृष्टि स्चनेके व्यि जीण परम्पराः रीते आचार, शीषं मान्यतर्पि- सवर भूसेकी देयां है जल रही ज्वालमें महान्‌ विप्टवके कालपुरुष चल पड़ा दै विनाश करनके चि ओर करनेके व्यि फिरसे निर्माण अद्भुत सुविशा प्रासादः साथ-साथ शान्तिका-- अरे एक एेसी मानव-जातिका, जो रथी होगी एकताके सचे, मानकर--सवका आधार सत्ता सनातन, एक मूलस्ोत सकर प्राणिमा्रका संदेश परमात्माका- सारी मानवता मुञ्मे समायी हई, सुञ्मे गतजीवन दै जीवनको वि मत, काटो मत- भने है जन्म छिया फिरसे एक नयी चेतनामें | इस वदठे हुए दश्यको खीकार करो. च्चे वनौ

ओर सार्वभौम |

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# हंषारा धै %

३५

हमार धमं

( श्रीश्रीभर विन्द )

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हमारा धर्मं सनातन-धर्म॒द यह धर्म त्रिविधः तिमा गामी ओर्‌ तरिकर्म-रत है टसारा धर्म त्रिविध है भगवान अन्तरात्मा, मानसिक जगत्‌ ओं स्थूल इन्दी तीन धामे प्रकृतिखष्ट मदादाक्तिचालित विश्वके रूपमे अपने आपको प्रकट किया हे | इन्दी तीन धासो उनके साथ युक्त होनेकी चेष्टा करना सनातन-धम॑का चिविधत्र है | हमारा धममं॒त्रिमार्गगामी हे | ज्ञानः भक्ति ओर कर्म--इन तीन स्वतन्त्र या सम्मिछित उपायोसे उस युक्तावखाको सनुष्य प्राक्त कर सक्ता है | इन तीन उपाये आत्मद्ुद्धि करके भगवानके साथ युक्त दोनेकी इच्छा करना दी सनातन-धर्मकी त्रिमागंगामी गतिं दै दमाय धर्म॑तिकर्मरत दै मनुष्यकी सभी प्रधान व्रततियोमं जो तीन व्र्तियो ऊध्वंगामिनी, व्रह्म प्रा्ि-बल्दायिनी दैः वे दै सत्यः परेम ओर शक्ति इन्दीं तीन व्रत्तियोके विकासकरे द्वारा मानव-जातिकी क्रमोन्नति साधित होती रदी है। सत्यः प्रेम ओर राक्तिके द्वारा भिमार्मे अग्रसर दोना दी सनातन-धर्मका चिकर्मं है

सनातन-धमकं अद्र वहुत-प्े गांण-घम निहित है सनातनका अवलरुम्बन करके महान्‌ ओर क्षुद्र नाना प्रकारके परिवतनरील धमं अपने-अपने क्मम प्रवृत्त दोते दँ समी प्रकारके धम-कसं स्वभावखष्ट होते सनातनधर्म जगतूके सनातन खभावपर आश्रित दै ओर ये नाना प्रकारके धर्म नानाविध आधारगत स्वभावके फठ दै | व्यक्तिगत धर्म, जातिगत धरम, वर्णानि धर्मः युगधर्मं इत्यादि नाना प्रकारके धम दै ये सव्र अनित्य दोनेक्रे कारण दही उयेश्चणीय या वजैनीय नहीं दैः बल्कि इन्दी अनित्य परिवर्तनशीक धमेकि दारा सनातन-धम॑ विकसित ओर अनुष्ठित होता है व्यक्ति- धम, जाति-धर्मः वर्णाश्रित धर्म, युग-धर्म इत्यादिका परित्याग करनेसे सनातन-घमम॑की पुष्टि नदीं होती, बक्कि अधम॑की दी बृद्धि होती दै तथा गीताम जिते संकर कहा गया है सनातन प्रणालीका भङ्ग ओर क्रमोन्नतिकी विपरीत गति- बह वसुन्धराको पाप ओर अत्याचारसे दग्ध करता है जब उस पाप ओर अल्याचास्की अतिरिक्त मात्रासे मनुष्यकी उन्नतिकी विरोधिनी ध्मनारिनी आसुरि शक्तियो वदित ओर बल- शाली देकर लखार्थः क्ररता ओर अहंकास्पे दसौ दिदाओंको आच्छन्न कर देती है जगतूमे अनीश्वर ईश्वरका सूप ग्रहण

करना आरम्भ करता है, तव भारातं एथिवीका दुःख कम करनेके ल्ि भगवानूकै अवतार या विभूति मानव-दारीस्य प्रकट होकर पुनः धर्मपथको निष्कण्टक बनाते

सनातन-धर्मका टीक-टीक पालन करके चयि व्यक्तिगत धर्मः जातिगत धर्म, वर्णाश्रित धर्म ओर युग-धर्मका आचरणः सवेदा रक्षणीय है परंतु इन नानाविध धर्मं शुद्र जर महान्‌--दोनो प्रकारके सूप महान्‌ धर्मके साथ क्षुद्र धमेको मिलाकर ओर संशोधितकर उसका पाटन करना श्रेयस्कर दै व्यक्तिगत धर्मको जाति-धर्मके क्रोडे रखकर उसका आचरण नदीं करनेसे जाति नष्ट हो जाती है एवं जातिधर्मके जप्त दो जानेसे व्यक्तिगत धर्मका क्षे ओर सुयोग नष्ट हो जाता हे यदह भी धर्मसंकर दै-जिस धरम संकरके प्रभावसे जाति ओर संकरकारीगण दोनो अतल नरके निमगन होते दँ सवसे पठे जातिक्री रक्षा करनी चादिये; तभी व्यक्तिकी आध्यासिक, नैतिक ओर आधिक उन्नति निरापद्‌ वनायी जा सकती दै वर्णाभ्चित धमको मी युग-धमके सचिम ढालकर यदि उसे गटित करिया जाय तो मदान्‌ युग-धरम॑की प्रतिकूल गतिसे वर्णाध्रित धमं चूर्णःविचुणं ओर नष्ट हो जाता है ओर उसके फलस्वरूप समाज भी चूर चूर ओर नष्ट हो जाता है शुद्र सदा दी महानका अंश ओर सदायक होता है; इस सम्बन्धकी विपरीत अवस्था धर्म-संकरसम्भूत धोर अनिष्ट होता दैः क्षुद्र धर्म ओर महान्‌ ध्मैके बीच विरोध होनेपर शुद्र धरम॑का परित्याग करके महान्‌ धर्मका आचरण करना दी मङ्गख्प्रद होता है

हमारा उदूदेश्य दै--सनातन-धर्मका प्रचार करना ओर सनातन-धमांश्चित जाति-धमं ओर युग-धर्मका अनुष्ठान करना। हम भारतवासी आ्यजातिके वंशधर है, आ्थरिक्षा ओर आर्य. नीतिके अधिकारी यह आर्य॑माव दी हमारा कुक-धरम ओर जाति-धमं दै। ज्ञानः भक्ति ओर निष्काम क्म आर्य॑-रिक्षाके मूढ तत्व दै तथा ज्ञानः उदारता, प्रम, साहसः शक्ति ओर विनय आयं-चरितरके लक्षण मानवजातिको ज्ञान प्रदान करना; जगतूमे उन्नत उदार चरका निष्कलङ्क आद रखना, दुबेख्की रक्षा करना प्रबल अल्याचारीको दण्ड देना आर्य- जातिके जीवनका उद्देश्य है उसी उद्देद्यको सिद्ध करने

` १"

४६

उसके धमकी चरितार्थता दै दम धर्मशष्ट लष्यमष्ट, ध्॑संकर होकर ओर श्रान्तिसंकुर तामसिक मोहम पड्कर आर्थ-रिक्चा ओर आर्य-नीतिसे रदित दो गे दै हम आर्य होकर श्रत ओर शुद्रघर्मरूप दासत्वको अद्धीकारकर जगत देयः प्रबल-पद्‌- दलति ओर दुःख-परम्परा-प्पीडित हो रदे अतएव यदि हमे जीवित रहना हो, यदि अनन्त नरकसे सूक्त दोनेकी ठेटमात्र भी अभिलाषा हो तो अपनी जातिकी रक्षा करना हमारा प्रथम कत्तव्य दै ओर जाति-रक्षाका उपाय है आर. चरित्रको पुनः अपने अंदर गठित करना हमारा पदा उद्देद्य दै अपनी समस्त जातिकोः विरोषकर युवक-सम्प्रदाय- को एेसी उपयुक्त रिष्चाः उच्च आदर ओर आर्यभावोदीपक कायं प्रणाली देनाः जिससे जननी जन्मभूमिकी मावी संतान ज्ञानी? सत्यनिष्ठ, मानवःपरेमपूणं श्रातरभावकरी मादक, सादसी शक्तिमान्‌ ओर विनीत दो जवतक हम इस कार्यम सफठ नदीं होते, तवतक सनातन-धर्मका प्रचार करना केवल ऊसर कषेम बीज बोनेके समान दे जाति-धर्मका पान करनेसे युग-घर्मकी सेवा करना सदज हो जाता दै यद युग शक्ति ओर प्रेमका युग दै जव कलिका आरम्भ होता ३, तव ज्ञान ओर कर्म भक्तिके अधीन ओर सदायक होकर अपनी-अपनी प्रवरृत्तिको चरिताथं करते दैः सत्य ओर शक्ति प्रेमका आश्रय केकर मानव-जातिके अंदर त्रमका विकाख करनेकी चेष्टा करते बोद्धःधर्मकी मेव्री जीर दया; ईसाई-धर्मकी प्रेमरिक्षा, मूखल्मान-धमंका साम्य

खधर्मका खरूप ओर उसका पालन सधर्म कितना दी वियुण होः तो भी उसीमें सकर मनुल्यको अपना विकास कर ठेना चादिये; क्योकि उरीर्म रहनेसे विकास दो सकता दै इसमे अभिमानका कोई प्रदन नहीं हे यह तो विकाखका सूच दै खर्म रेस वस्व॒ नदी दै करि जिते वड़ा खमञ्चकर ग्रदण कर ओर छोटा उमद्चकर छोड़ द। वस्ठ॒तः वह वड़ा दोता & छया हमारे व्योतका दोता दै 9, > >€ वुसखरेका धर्मं मे दी श्र8 मादस दो, उ8 ग्ण करने ण॒ नहीं सूरयका प्रकारा ञ्चे प्रिय दे उख

=.

धमां र्ति रञ्षितः #

ओर भ्रात्रभाव, पौराणिक-धम॑की भक्ति ओर्‌ प्रेममाव इस चेष्टके फर दै कलिदुगम सनातन-धम मेती, क्म, क्ति प्रेमः साम्य ओर श्रातरभावकी सहायता लेकर मनुष्य-जातिका कल्याण साधित करता है ज्ञानः भक्ति ओर निष्काम ककत दवारा गठित आर्य-धर्ममे ये दी शक्तिर्या प्रविष्ट ओर विकि होकर प्रसारित होने ओर अपनी प्रवृक्तिको चरितार्थं करनका। माग खोज रदी शक्ति स्फुरणके रक्षण दै -कटिन तपस्य उ्चाकाह्चा ओर महत्कर्म जव यदह जाति तपरलिनी)। उच्चाकाह्धिणीः मह्कम॑प्रयासिनी होगी, तव यह समञ्लना हेग] करि जगतूकी उन्नतिके दिन आरम्भ हयो गये दै, धर्म-विरेधित आसुरि शक्तियौका हास ओर दैवी शक्तियौका पुनर्त्था्‌ अवश्यम्भावी है अतएव इस प्रकारकी रिक्षा भी वतमं समयके ल्य आवश्यक दै | युग-धर्म ओर जाति-धर्मके साधित दोनेपर सारे जगत्‌) सनातन-ध्म अ्राधरूपसे प्रचारित ओर अनुष्टित होगा। पूरवैकार्ते विधाताने जो निर्दिष्ट करिया दै, जिसके सम्बन्ध शास्मि मविष्यवाणी की गयी दै, वह भी कार्यम अनुभू दोगा 1 समस्त जगत्‌ आयंदेशसम्भूत ब्रहमज्ञानि्योके पा | जञान-घर्मका शिश्चा्थीं वनकरः भारत-भूमिको तीथं मानकर्‌ अवनत-मस्तक होकर इसका प्राधान्य खीकार करेगा उर | दिनको ठे अनेके ल्यि भारतवासियोका जागरण हो रहा | आय॑मावका पुनरुत्थान दो रहा है ध्वमः पत्रिकते ) (प्रेषक शरीचनद्रदीपनारायणजी त्रिपाठी, श्रीभरविन्दाश्मःपांडिचेपी)

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% स्वधम |

( ठेखक-- श्रद्धेय संत श्रीविनोवा भावे ) . 4

प्रकाशते मे वदता रहता द्र सूर्य ञ्चे वन्दनीय भी पर | इसि यदि मे पृरथ्वीपर रहना छोड़कर उनके पास जाना चाहूगाः तो जठ्कर खाक हो जाऊंगा इसके विपरीत भे . दी ्ष्वीपर रहना विगुण हो, सूर्यके सामने प्रथ्वी बिल्छु ठच्छ होः बह खनप्काशी नहो; तो भी जवतक्त सूक तेजको सदन करनेकी साम्यं सुञ्म जायगी; |

स्यते दूर प्रण्वीपर रहकर ही मुञ्चे अपना विकास कर केन्‌ |

होगा मछलियसे यदि कोई कदे किं (पानीसे दूध कीमी ,

दैः ठम दम रहने चोः तो क्या मियो उसे म॑

करगौ { मर्यो तो पानी दी जी सकती दै, दध मर जायेगी

> ५4 ><

न.

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यहं सधम ह्मे निसर्गत कदी खीजने नहीं जाना पडता |

प्रास्त दोता है खधर्मको

जिन मा्ापकी कोख ये जनया दर, उनकी सेवा करने- का धम मुज्ञे जन्मतः दी प्राप्त हो गया है ओर जिस समाजे मने जन्म लियाः उसकी सेवा करनेका मी धर्म सुञ्चे क्रससे अपने-आप दी प्राप्त दो गया है। सच तो यह है कि दमारे जन्मके साथ दी हमारा खधर्म भी जनमता है बल्कि यह भी कट्‌ सकते टं कर वट्‌ तो हमारे जन्मके पदल्ेसे दी हमारे स्यि तैयार रहता दै; क्योकि वह हमारे जन्मका दु दै दमारा ` जन्म उसकी पूरिते व्यि होता दै >€ >€ ><

सधम हमे इतना सदज प्राप है करि हमसे अपने-आप उसीका पालन दोना चाहिये परंतु अनेक प्रकारके मोहो के कारण ेसा नदीं होता, अथवा बड़ी कठिनाईसे होता है; अनेक प्रकारके दोष मिल जाते | खध्म॑के मार्गमे कटि व्रिखेरनेवाटे इन मोक बाहरी स्पोकी तो कोई गिनती दी नहीं फिर भी जव हम उनकी छानवरीन करते हः तो उन सवकी तहमं एक दी

वात दिखायी देती है-संकुचित ओर छिछटी देह-बुद्धि

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गीतामे (कमः शब्द्‌ (सखधम॑गके अथ॑मे व्यबहूत है हमारा खाना, पीना, सोना-ये कर्म ही है; परं गीताके कमः शब्दसे ये सब॒क्रियार्ण सुचित नदीं दतीं कम॑से वौ मत्व खधर्माचरणसे दै परंतु इस खधर्माचरण- रूपी कमैको करके निष्कामता प्राप्त करनेके व्यि ओर भी एक वस्तुकी सहायता जरूरी दै वह काम ओर क्रोधको जीतना चित्त जबतक गङ्गाजलकी तरह निर्मल ओर प्रशान्त हो जाय तवतक निष्कामता नदीं सकती इस तरद चित्त-संशोधनवे स्ि जो-जो ˆ क्रिये जाये; उन्हं गीता ध्विक्म॑ः कहती है कर्म, 0विकर्मः ओर (अकर्म, ये तीन शब्द्‌ चौये अध्याये बड़े महके दै (कर्मःका अर्थं हैः खधमाचरणकी वादरी-स्थूढ क्रिया इस बाहरी क्रियाम चित्तको ख्गाना दी “विकर्म, है | ऊपरसे हम किसीको नमस्कार करते है; परंतु सिर ह्कानेकी उस ऊपरी क्रियाके साथ दही भीतरते मन मीन छकता दो, तो बाह्य क्रिया व्यर्थ है अन्तर््ाह्म- भीतर ओर बादर दोन एक होना चाय! दस्ते शिव-पिण्डपर सतत जलठ-धारा गिरते हुए अभिषेक करता हरू | परंतु इस जल-धाराके साथ दी यदि

2७

मानसिक चिन्तनकी धारा भी अखण्ड चलती रहती हो तो उस अमिषरककी क्या कीमत रही फिर तो वह्‌ शिव- पिण्ड भी पत्थर ओर मै भी पर्थर दही पत्थरके सामने पत्थर बेठा-यदी उसका अथं होगा निष्काम कर्मयोग तभी सिद्ध दोता हैः जव्र मारे वाह्य कर्मके साथ अंदस्से चित्त-गुद्धिरूपी कर्मका भी संयोग दोता दै

धनिष्काम कर्मः इस शब्द-प्रयोगमे (कर्मः पदकी अयेक्षा °निष्कामः पदको दी अधिक महच दै, जिस तरह (अहिंसात्मक असहयोगः शब्दप्रयोग “असंदहयोग'की बनिस्वत (अ्िंसा- त्मकः विदोपणको दी अधिक महत्व है अर्दिसाको दूर्‌ हटाकर यदि केवर असहयोगका अवलग्न करेगे, तो वह्‌ एकर भयंकर चीज बन सकती है उसी तरह स्वधर्माचरण- रूपी कमं कसते हुए य॒दि मनका विकमं उस नदीं जड़ा दै, तो उसे धोखा समञ्चना चाद्ये

आज जो छोग साव॑जनिक सेवा करते है वे सधमेका ही आचरण करते दै जो लोग गरीवः कंगाछः दुखी ओर मुसीवतमे होते रै, तव उनकी सेवा करके उन्दं सुखी बनाना प्रवाद-प्राक्त धर्म है परंतु इससे यह अनुमान कर छेना चाहिये किं जितने भी रोग सार्वजनिक सेवा करते दः वे सब कर्मयोगी दो गये हैँ टोक-तेवा करते हुए यदि मनम श्चद्ध मावना दो, तो उस लोक-तेवाके भयानक होनेकी सम्भावना है अपने कुटुम्बकी सेवा करते हए जितना अहंकार जितना दवेप-मत्सरः जितना खां आदि विक्रार हम उत्पन्न करते दै, उतना सव ठोक-सेवामे मी हम उत्पन्न करते दै ओर इसका प्रत्यक्ष दर्शन हमे आज-कल्की लोक -सेवा-

मण्डलियोके जमघय्मँ भी हो जाता है >< > यद सधर्म निश्चित कैसे किया,जाय- एसा कोई प्रन करे

सखध्म॑सदज होता दह उसे खोजनेकी कल्पना ही विचि मादूम होती दै मनुष्यकरे जन्सकरे साथ ही खधमं भी जनमा द] वच्येको जैसे अपनी माकी तलाश नदीं करनी पड़ती वेसे दी स्वध भी किंसीको तलाशना नहीं पड़ता बह तो

पहल्ते ही प्रात दै हमारे जन्मके पटे भी दुनिया यी हमारे बाद भी वह्‌ रहेगी हमारे पीछे भी एक बड़ा प्रवाह या ओर आगे भी वह दै दी- रसे प्रवाहमे {हमारा जन्म हुआ जिन रमौबापके यदौ मेने जन्म च्या दै उनकी सेवाः जिन पासङ्खियोके वीच जनमा दू, उनकी सेवा--

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३८ धम रक्षति रक्षितः #

ये कमं सन्ने निसर्गतः दी मिरे दै फिर मेरी वृत्तिर्या तो मेरे नित्य अनुभवकी ही दँ मुञ्चे भूख रूगती दै प्यास क्गती दे; 8 अतः भूखेको भोजन देना, प्यासेको पानी पिलाना, यह धम सुञ्चे स्वतः प्राप्त हो गया है इस प्रकार यह्‌ सेवारूपः भूतदयारूप स्वधम॑हमे खोजना नहीं पड़ता जहौ कदीं स्वघर्मकी खोज हो रदी होः वर्हौँ निश्चित समञ्च ठेना चादिये किं कुछ-न-कुक परधर्म अथवा अधम हो रहा हे >€ >< >€ चातुर्व्-व्यवस्था जो सुनने मधुर मालूम होती दै, उसका कारण यदी है किं उसमें स्वाभाविकता ओर धम्म दोनों है इस स्वधर्मकरो छोडनेसे काम नहीं चर सकता जो मवाप मञ्च प्राप्त हुए ईः वे दी मेरे मवाप रहैगे यदि मे यद कहू कवे मुञ्चे पसंद नहीं हैः तो कैसे चलेगा ्मोवापका पेशा स्वभावतः दी कड़केको विरासतमे मिक्ता है जो पेशा ू्वापरसे चखा आया दैः वदं यदि नीतिःविश्दध दोः तो उसको करना, उसी उद्योगको आगे चलाना चातुर्वण्येकी एक बड़ी विदोषता दै यद वणै-व्यवस्था आज अस्त-व्यस्त हो गयी उसका पाटन आज बहुत कटिन हो गया दे परंतु यदि वह ठीक टंगपर खायी जा सके तो बहुत अच्छा होगा; नहीं तो आज शूक पचीस-तीस सार तो नये धंषे सीखने दी चले जते दै काम सीख छेनेपर फिर मनुष्य अपने लि सेबा-कष्र, कार्यशषि्र खोजता दै इस तरह रुके पचीस सारुतक तो बह सीखता दी रहता दे इस शिक्षाका उसके जीवने कोई सम्बन्ध नदीं रदता कहते है, वह भावी जीवनकी तैयारी कर रदा है रिक्षा प्रात करते समय मानो वह जीता ही हो जीना बादमे दे कहते है पटे सव सीखना ओर बादमे जीना मानो जीना ओर सीखनाः ये दोनें चीजे अल्ग-अख्ग कर दी गयी | जरह जीनैका सम्बन्ध नदी, उत मरना दी तो कैग दिदुस्तानकी ओखत उग्र तेईख सार दै ओर पचीख साकतक तो बह तैयारी दी करता रहता हे इस तरद नया काम-धंघा सीखने ही दिनि चे ज्ञाते दैः तव नया काम-धंवा दरू दोता दै इससे उमंग जीर महत्वे वं व्यथं चले जाते जो उत्सादः जो उमंग जनता खच करके जीवन साथेक करिया जा सकता दः वह यो दी व्यथै चटी जाती हे | जीवन कोई खे नदी दे। ` चर टकी बात किं जीवनका पहला अमूल्य अंडा तो कामः 2 धधा खोजने दी चला जाता हे िदू-धमेने इसीख्ि वर्भ-र्मकी युक्ति निकारी

=-= ~ = © सधक {ठ्य खधस्क्ं सारांश यह कि तामस ओर राजस कमतो विव्छुढ छोड देने चादिये ओर साचिक्र कमं करने चादिये इसके साथ दही यह विवेक रखना चादियेक्रि जो साचिक क॑, सटज ओर सखाभाविक रूपसे सामने जार्यै, वे सदोष होते हुए. भी त्याज्य नदीं है दोषहोता है तो होने दो|। उस दोषसे पीछा चुडाना चादोगेः तो दूसरे दोष पल्छे पगे अपनी नकटी नाक नेसी हैः वेसी दी रहने दो ङे अगर काटकर सुन्द्र वनानेकी कोरि करोगे, तो वह भी भयानक ओर भदी दीखेगी वह जेसी हैः वैसी वै अच्छी साचिक कर्म सदोष दोनेपर भी स्वाभाविक स्प पराप्त दनेके कारण नदीं छोड्ने चादि उन्दै करना लेकिन उनका फल छोड़ना है

ओर एक वात कनी दै जो क्म सहजः स्वामाकि रूपसे प्रात हुए दयौः उनके बारेमे व॒म्दे एेसा लगता दै कि वे अच्छी तरह किये जा सकते है तो भी उन्दैमत वरे। | उतने दी कमं करो, जितने सदजरूपे प्राप्त दौ उखाई | पचछठाड्‌ ओर दौडङ्-धूप करके दुसरे नये कमेकि चक्रमे | पडो जिन कर्मोको खास तौरपर जोड-तोड़ टगाकर कसं | पड़ता होः वे कितने दी अच्छे क्यो हौः उनमे दूर र्हो।। उनका मोद करो जो कर्म सहज प्रास हैः उन्दकिं फख्का व्याग हो सकता दै यदि मनुष्य इस टोभते किं यद कम॑ | अच्छा दै ओर वह क्म भी अच्छा चारौ ओर दौड. रगो, तो फिर फरयाग कैसे होगा उरते तो सारा जीव दी एक फजीहत हो जायगी फल्फी आशासे ही वह इन | धरम॑रूपी कर्मकरो करना चादिगा ओर भी दाथते ख| वैठेगा जीवनम कदं मी सिरता प्राप्त नदीं होगी चि पर उस कर्मकरी आसक्ति चिपट जायगी अगर सा| कर्मोका भी लोम दोने गे, तो उसे भी दूर करना चाय || उन नाना प्रकारके साचिक कर्मोको यदि करना चाही तो उसमे भी ाजसता जर तामसता जायगी इस

तुम वदी करोः जो तुम्हारा खाछिक; स्वाभाविक ओर |: प्रात स्वधर्मं हे |

|

{ स्वधर्म स्वदेशी धर्म, स्वजातीय धर्म॑ ओर स्वकर समाविश दोता है ये तीन मिलकर स्वधम व+ : भेरी इतके अनुकूल ओर अनुरूप क्या दै ओर सा कतव्य मञ्चे आकर प्रात हुआ दैः यह्‌ सव खधर्म नि

£ सानव-ध्मका संश्चिघ्च खरूप %

= ===

करते समय देखना दोता दै लमम॑प्वुमपनः जैसी कोई चीज है ओर इसल्ि तुम प्वुमः हय प्रत्येक व्यक्ति उसकी अपनी कुछ विरोषता होती दै वकरीका विकास वक्री वने रहनेमे ही है वकररी रहकर दी उसै अपना विकास कर लेना चादिये वक्री अगर गाय वनना चाहे, तो यह उसके च्वि सम्भव नदीं | वहं स्वयं प्राप्त वकरीपनक्रा त्याग नहीं

| कर॒ सकती इसके द्यि उसे दारीर छोड्‌ना पड़ेगा नया

२४५)

धमं ओर नया जन्म ग्रहण करना होगा, परंतु इस जन्मे तो उसके व्यि वकरीपन ही पवित्र है वैल ओर सटकीकी कहानी दै मंढकीके बद्नेकी एक सीमा दै वह्‌ परेल जितनी होनेका प्रयत करेगी, तो मर जायगी दूसके रूपक नकट करना उचित नदीं होता इसलिये पर-धर्मको भयावह कदा हे

( "गीता-प्रवचन, से संकटित )

( ठेखक

कोद भी मनुष्य वाजारम जाता है ओर कुक ठेने ख्गता है तो इसका विचार करता है कि वह्‌ पदार्थं अपने सच्चे गुण- धमसि युक्त है या नदी; ओर जो पदार्थं सच्चे गुणधमसि युक्त हैः वद उसीको ठेता दै एक साधारण मनुष्य इतनी दक्षता बरतता है | परंतु सनुष्यको पास करने वह्‌ इतनी कसौटी नहीं स्गाता सनुष्यकरे पास इतने पदाथ जन्मे प्रा हुए दै--

१--दरीर स्थूः सूक्ष्म ओर कारण-- ये शरीर )

२₹-इन्दरिय ( पच करमन्िय ओर पोच ज्ञनेन्द्िय )

र- मन ( विचार ओर मनन करनेका साधन )

४- उदधि ( जान-संग्रह-स्ान )

५--आत्मा ( संचाटक नेता )

& परमात्मा ( विश्वका संचाकनकर्ता )

प्रत्येक मनुष्यके पास इतने साधन ओर संचालनके तत्व ई; प्रलयेक मनुष्य इनका योग्य उपयोग करेगा तो निस्संदेद उसका मह वेगा परंतु मनुष्य शरीर, इद्दियः मन ओर बुद्धिको दीन कर्ममिं प्रयुक्त करता है ओर फैसता रहता है यदी साधारण मतुष्यकरा दोप है अतः मनुष्यकरो चादिये करि वद अपने मन ओर बुद्धिको आत्मज्ञान प्राप्त करने ओर परमात्माका गुण-चिन्तन करनेके पवित्र कार्यमे र्गाये ओर अपने-आपको कृतकार्यं बनाये

ऊपर कटे हए शरीरः इद्ियः मन, बुद्धि ओर आत्मा ये प्रवयेकके पास दोते है ओर एक्के अंदर दूसरे ते गरीरके अंदर इद्दि्यौ दोती इन्दि उनका संचालन करनेवादा मनदोताद। मनके अंदर बुद्धि-- गनराक्ति दती दै उदके अंदर आत्मा ( जीवात्मा ) होता

पनवधम॑का संक्षि खरूप

श्रद्धेय प° श्रीपाद दामोदर सातवलेकर्‌ महोदय )

है ओर जीवात्माके अंदर परमात्मा सर्वाधाररूपसे रहता है

म्रत्येक सनुष्यके अंदर येदोते ही | इनक्रा एेसा अस्तित्व किसी मनुष्यके अंदर नदीं होता, एेसी बात नहीं दै मनुष्यको अपने अद्र इनको देखना चादि ओर अन्तयामीको यथार्थतः जाननेका यत्न करना चाद्यि विश्वम मुख्यतः जानने योग्य यही वस्तु है

इसीको (आत्मा अथवा (जीवात्मा कहते “आत्मा"का अथं ( अत = सातत्यगमने ) सतत संचलन करनेवाला दै इसका अनुमव सव्रको प्राप्त हो सकता है इस शरीरम रदकर यह सतत हलचल करता है इस हट्चल्पर ही इसकी उन्नति अवटग्बित रहती है

यदि इसने उच्छ कायं किये तो इसकी उन्नति होगी ओर बुरे कायं कयि तो अवनति होगी अतः इस आत्माको सदा अच्छ कार्यम ही दत्तचित्त रहना चाये बुरे कर्ममिं लगना कदापि उचित नदीं

मनुष्यमे कर्मशक्ति दैः अच्छे या बुरे क्म बह सदा करता रहता है अतः वह नियम करे कि भै सदा अच्छे अच्छे ही कायं करूंगा, कमी बुरे कार्यमे मै नही कैुगा

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः

( श्रीमद्भगवद्वीता )

जनकादि श्रेष्ठ पुरषको शरेष्ठ कर्मं करनेसे ही सिद्धि प्राप हुई थी |

शरेष्ठ कमं करनाः श्रेष्ठ विचार करना, श्रेष्ठ तत्व ( परमात्म-तत्व ) का मनन करना, उसीका ध्यान करना उसीमे तल्ीनता प्रासं करना यही मनुष्य-उन्नतिका उच्छृष्ट साधन दे यही धर्म है |.

जो यद्‌ करेगा, वदी सचा आनन्द प्रात करेगा

">< छह

परमोच्व धाम प्रवेश करता धर्मं मानवके जीवै इतना हस्का कर देता है कि वह चाहे जितना ऊँचा कर|

% धमां रक्षति रक्षितः धूमे €= लक्षण ( छेखक-- श्रद्धेय स्वामीजी श्रीविचानम्दजी विदेद महोदय ) वेदोपदेश आजश्च तेजश्च सहश्च बर वाक्चेन्द्रियं श्रीश्च धम॑ङच (अ० १२।५1७)

(मोजः तेजः सहः बरु वाक्‌ इन्द्रियं श्रीः धमः 1) ध्ेकी परिभाषा जञानियोने धर्मकी विविधसूपेण परिमापार्प्‌ की उन सवका अनुशीलन ओर मनन करनेके उपरान्त इस परिणामपर पर्चा हू किं साररूपरमे धमकी परिमाषाके तीन

काक `

पमुख अङ्ग ईै-- | ( १) पर्मात्माको सवैव्यापक ओर सर्वज्ञ जानकर | पापसे बचना

=

( २) कमेनिष्ठा अथवा कलैव्यपरायणता | ( ) लोकत अथवा विश्वसेवा ये तीनो परिभाषा वेदकी एक-एक सूक्तिमै संविष्ट ~ वादुमारोह धम॑णा” धर्मके द्वारा वायुपर आरोदण कर- वायुं ) बायुपर ( आरोह } आरोहण कर ( धम॑णा ) धर्मके द्वारा वायुका धात्व है खगति ओर सुगन्धी कामना सुगतिम ही वास्तविक खुगन्धका निवास कुगति दी दुर्गन्ध दहै खुगति ( सु-गत ) दी सगन्ध ह] गतिसे ताल कर्म, ति, चेष्टा दै जिसकी प्रत्येक कति ओर चेष्ट ध्यु, है, उसकी यदा-खुगन्ध संसारम व्यापती चली जाती परमात्माको सर्वव्यापक ओर सवज्ञ जानकर पापमुक्त अथवा निष्पाप ओर निर्दोष रहना, निष्टपूवंक कत॑व्यका पाटन करना, ठोकदितरमे निरत रदना--इन तीनौका समन्वय ही स॒गति दै ओर खगति दी खगन्धकी सम्पादिका दे इस व्याख्याके ग्रकादामें उपर्युक्त सूक्तिका स्पष्टा दै---शवमके दयार सुगति ओर खगन्धपर आरोहण कर धर्म॒सुगति ओर उुगन्धपर आरोहण कराता दै इख सूक्तिका प्क ओर भी वड़ा गहन ओर खुन्दर आद्यय है अतिशय हल्की वस्त॒ वायुपर आरोहित होकर आकारा ऊँची चद्‌ जाती दै जिस भकार हल्की पतङ्ग डोरे ) के आश्रयखे आकाशम ऊच चती हैः उसी

मके आभरयवे आत्मा ऊँचा चदुता हज विष्के

सकता है 1 अधर्म वह मारी पत्थर दै कि उसे जो जाता दैः वह्‌ उसे इत्र देता दै लाखोँ-करोड़ौ सन धमे४ अतिशय हल्का करके ऊपर. दी-ऊपर चटाये व्यि चल जा | उसके विपरीत अधम॑का एक कण भी इतना मारी हेः. है किं वह सर्वतः; सर्वान्ततः, सव॑था इवा देता दे धमा ( सुगति ओर सुगन्ध ) पर आरोदित करके ऊँचा उगर। ओर ऊपर चदाता दै ८२) धमक रश्ण

( १) प्यत्र धर्मश्च तत्र जोजश्च ।› जदो घमं देत

ओज दोता है ओज धममका पडत लक्षण दे धरम . व्यक्ति ओजखी हो जाता है वह उम॑गः उत्साह $|

जोश-खरोदसे सदेव भरपूर भरा रहता उत्सादीन

रिथिरुता, प्रमाद्- ये तीन दुरित अध्मके सटचारी६।

धर्मका ओज अदम्य ओर अक्षय है- जो दत्राये द|

छिपाये छिपता है धर्मके ओजसे ओजित व्यक्तिम अप

कर्मश्चमता ओर अपार साधना-निरतता सदैव निहित टं

हे जिसके जीवनम ओज नहीं है, समन्न लीजिये किं धर्म नहीं हैः ध्मीभास मले दी हो |

( २) यत्र धर्म॑श्च तत्र तेजश्च ।› जदो धमं होगा, 4

तेन होगा धर्मका तेज वह तेज है, जिसके सामने सू

तेज भी फीका पड़ जाता दै जिसके जीवनम धरम॑ तिह

होता दै, निस्संदेह वह तेजःपुज्ञ होता दै उसके रेप?

ओर कण-कणसे तेजकी तेनोमवी किरणं ्रयती €|

है भगवान्‌ शंकराचायं ओर महं दयानन्दके तेजके ^

बड़े-बड़े श्यूर-सामन्त ओर वडे-बड़ राजे-मदाराजे

क्यो दो जाते थे आचाय ओर महर्षिका वह तेज

ही तेज था विभीषणकी धर्मबती पुत्री कटाने अपने

रावणे पूछा, ‹बंदिनी सीताके सामने आप इतते नि

क्यो हो जते ई! “सीता धर्मक तेजघे इतनी तेजखिनी

उसके सामने सूर्यका तेज भी ्िथिक पड़ जाता दै उत्तर दिया “जरह कृष्ण्‌ ह, वरह धर्म हे ओर जदा ५५, विजय | इस उक्ति धर्मके उसी तेजका संक

# धमैका तेजस्वी रूप

14

जिसका उल्टेख यदा वेदमाताने करिया है भगवान्‌ श्रीकृष्ण साक्षात्‌ धमं ये इसील्यि वे तेजोऽवतार ये, तेजके साक्षात्‌ अवतार थे--उस तेजकरेः जिसके अभिमुख प्रथिवी थर-धर कोपती धी |

(र) ध्यत्र धर्मश्च तत्र सदश्च ।' जट धमं है, वरदौ सद ( सटनराक्ति, सदनरीठता, धेयं ) है “सहः ओर ध्र खब्द्‌ पर्यायवाची दै जरा धर्मात्माओंके जीवनचस्ति- का अवलोकन तो कीजिये आप देखेगे किं धर्मने उन्दैँ केसा सदेनदीट अथवा धैर्यका धनी वना दिया था सहका अ्थंहे घरुव--े्यके साथ मुकावला करके परास्त करनेकी शक्ति “सहः ही है, जिसते मनुष्य धीर कडलाता दै जं धमं होगा, वरहा सदह अवदय दोगा हो नदीं सकता किं धर्म॑ दो ओर सदह हो धर्मात्मा सदके अवटम्वसे बड़ी-बड़ी चारिक पार करते दै, वड़ी-ते-वड़ी आपत्ति्ोका मुकावटा करके उनका मुह फेर देते धर्मात्माओका सह दी है जो पञ्चविकारो ओर वासनाओको परास्त करके उन्दै अपने जीवन-सदनसे निकार बाहर करते धर्मात्मा ओके सहकी महिमा अपार है |

( ) ध्यत्र धमेश्च तत्र बलं जदं धर्म है, व्हा चट है } धर्मा दी ब्ल है, सच्चा व्रल है, ठोस वल है; ओर सारे वल च्ुढे वल है, धोये बरदह धर्करादी बलदः जो सहावली मू्युसे खम ठोककर मिड जाता है | धर्मकरा दी वट हैः जो अत्याचार ओर अत्याचारि्योकी जङ्को खोदकर फक देता है | धर्मकरा दी वल हैः जो अन्यार्थो ओर अन्यायिर्योको नष्ट-विनष्ट करके दी दमलेता है | धर्मका बल वह वल दैः जिससे बलवान्‌ होकर अपरया सैनिक ओर अषि पर्याप्त सैनिक तथा शस्रौपर विजय प्राप्त की जाती

हे धर्मे बले ्राह्वल निवास करता है इसीसे धर्मका चल अजेय है |

( ) थत्र धर्श्च तत्र वाक्‌ जर्हौ धरम होता है वर्ह वाक्‌ ( वचन ) का परिपाख्न होता है

रघुकुरु रीति सद्‌ा चकि आई \ प्रान जाहि बरु कचन जाद धम वचनसे फिरना नदीं जानता ध्मात्माओके मुख- से जो वचन निकर है, वह धर्मल्म होता दै इसीष्ि धर्मात्मा अपने वचनसे कभी कदापि फिरा नदीं करते वेतो अधर्मात्मा होते दै जो अगर-मगर ओर किंतु-परंव- की ओम हालात ओर परिखितियोका वदहाना बनाकर अपने मुखसे निकाटी वातपे डिश जाते दँ

( & ) यत्र धरमेश्च तत्र इन्द्रियं ।' जां धमं होगाः वरहा जितेन्द्रियता अवद्य होगी महर्षिं चाणक्य कहते दैः “जितेन्द्रियता धम॑का मूल है ° जितन्दियताके अभावे धम एक क्षणके छ्य भी नदीं रिक्ता जिस राष्टके नागर मे इन्द्रियसंयमः इन्द्रियनिग्रहः जितेन्द्रियता नहीं होती; उस राषटूमं धर्मका नदी, अधर्मका राज्य होता है जितेन्द्रियता घर्मकरे मूलका सिञ्चन करती है तो धमं जितेन्द्रियता सम्पादन तथा संरक्षण करता दै

( ) ध्यत्र धमंश्च तत्र श्रीः ।: जर धर्मं होगा, वहां श्रीः ( ओम, सुन्दरता ) अवद्य होगी धर्मका सौन्दयं सर्वश्रेष्ठ सौन्दर्य है तभी तो छोग धममात्मार्ओंका ददन करने अते ओर उनके दर्शन करे कृतकृत्य हो जाते दै धम॑की श्रीम स्वयं भगवानक्रा निर्विकार सोन्दयं निखरता है इसीष्यि तो कदा गया दै, '्धर्मात्माओके पुण्य-दशंनमें दी. निराकार भगवानक्रा निराकार सौन्दयं साक्रार होता है

धरम॑का तेजखी रूप

( केखक--श्रद्धेय आचाय श्रीतुलसी महोदय )

धमं केवर बौद्धिक उपलब्धि ही नदीं है, वह मनुष्यकी स्वाभाविक एषणा है आत्मा है; पर वह शरीर ओर कर्मके आवरणसे आरत है इसल्यि अज्ञात है आधरणसे चैतन्य ख्का हआ दैः पर उसका अस्तित्व विस्मृत नदीं है | सूयं वादल्पते ठका हुआ दैः पर वह अस्त नही है दिन ओर रतक्रा विभाग कसम वह क्षम है। यह अस्तित्वकी स्मरति दी ध्मकौ सखाभाविक एषणा दै। आवरणके लारतम्यकरे कारण कुछ कोगोमे धर्मकी एषणा अव्यक्त

ध० अ० ७--

होती दहै ओर कुछ लेग व्यक्तं अपने आपको नास्तिक माननेवाठे भी धमकी एषणाते सुक्त नहीं होते मनुष्य हर प्रवत्तिके वाद्‌ विराम चाहता दै। बह

क्या हे अन्तको ओर गति शरीर, वाणी ओर मनकी प्रवृत्ति मनुष्यको बाह्य जगते ठे जाती है क्तु कुछ समय वाद्‌ मन ॒लयकर भीतरी ओर जाना चादता है वाणी मोन होना चाहती रै ओर शरीर शिथिल शरीरकी शिथिलता; वाणीका मोन ओर मनका अन्तर

1 =~----------- = विलीन होना ध्यान है ओर यही आत्माका स्वाभाविक रूप हे ओर यही धम धमे हे आत्मासे आत्मको देखना, आत्मासे आत्मको जानना ओर आत्मासे आत्माय स्थित होना धघम॑का अर्थं है द्रव्यका खभाव जो आत्माका सखभाव » वह धमं दै जो आत्माका सभाव नहीं दै, वह धर्म नदीं हे धर्मका अर्थं हे वस्तुका खरूप शून्यीभवदिदं विक्वं स्वरूपेण शतं यतः | तस्माद्‌ वस्तुस्वरूपं हि प्रहुरधंम॑ महर्षयः | यह विश्व पायसे शत्य होता रहता है पर्याय या ` अवस्थाके नष्ट दो जनेपर भी वह खसूपदवारा धरत रहता हि इसलियि वस्तुका खरूप धर्म कटलाता है आत्मा ज्ञानमयः, दशंनमयः आनन्दमय ओर शक्तिमय हे जान, दान, आनन्द ओर शक्तिके साथ जो एकरसता हैः वह धर्मद | आत्माकी मोद क्षोभ आदि आवेगोते रित जो परिणति है, वह धर्मं है घ्मकी विभिन्न परिभाषा है; पर उन सवका सार = स्वरूपम सित रहनेका अभ्यास धर्मकी यह परिभापरा जितनी आन्तरिक दै, उतनी ही तक॑संगत अपने आपको अधामिक माननेवाा भी धमकी इस परिमापासे विस्त नदीं दै धर्मक प्रति जो विरक्त दैः वद उस धर्मे प्रति हैः जिसमे आन्तर्किताका स्पशं नहीं है जर्दाो आचारकी गौणता ओर उपासनाकी प्रधानता है, वदाँ सदज ही वोदधिक दोता दै ओर वह व्यक्तिको धर्मःविसुख वना देता है क्या धृणा करनेवाला व्यक्ति धार्मिक है एक ओर उपासना ओर दूसरी ओर धृणा क्या यह योग किसी बुद्धिवादी व्यक्तिको धमकी ओर आकृष्ट करमेवाखा दै क्या शोषण करनेवाल् व्यक्ति धार्मिक दै १एक ओर दया ओर दूसरी ओर शोषण क्या यह योग॒क्रिसी विचारयीर व्यक्तिकौ ध्म॑की ओर आचष्ट करनेवाखा ? धार्मिक सवके साथ प्रेम करता दैः इसल्यि वहं रुणा नदीं कर सकता धार्मिक व्यक्तिं सव जीवको आत्मतुल्य ` मानता दै, इसव्यि वद किसीका सोप नही | धृणा ओर शोषण करता दैः वह धार्मिक ५५८६ धर्मी रचि ओर उसका आचरण दो मिन जो लोग अपने आपको धार्मिक मानते दै, उनमें मिखगे, धार्मिक वहत कम | जो छोग धार्मिक मानते दै, उनम भी कुछ लोग

मै

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* धमां रक्षति रक्षितः # | |

एक॒ विचारगोष्ठीकी सम्पन्नताप॒र एक दैनिक समपादकने कदा--आपने धर्मकी जो व्याख्या की >

_ ^ ^ उसे | अनुसार भी अपने आपको धार्मिक कह सकता धा्िकता अन्तःकरणकी पवित्रता है वह्‌ धर्मी

रुचि दोनेमा्रसे प्रात नहीं होती, उसकी साधना प्राप्त होती दै साधना करनेवाले धा्िक वहुत कम दै अधिकार धाभिक सिद्धि चादनेवले है वे धर्मको इसघ्यि नीं चाहते | करि उससे जीवन .पवि्र वने; कंतु वे उसे इसलिये चाहते है किं उससे मोग मिले आजका धर्मं भोगसे इतना आच्छन्न हैकि त्याग ओर भोगके वीच कोई रेखा ही नहीं जान पड़ती धर्मका क्रान्तकारी रूपम तव होता दै, जव वह्‌ | जन-मानसको मोग-व्यागकी ओर अग्रसर करे | आज लाम भोगके स्यि अग्रसर दो रहा है यह्‌ वह्‌ कीटाणुदहैःजो धके | स्वरूपको विक्त वना डाल्ता है मै मानता | जीवनकी अनिवार्य अपेक्षा है जौँ उसकी पूर्तिं नदी | होती, वरहा जीवनम एक अमावकी पूं कमी नदीं होती वह है मानसिक संतुकनका अभाव मानसिक संत॒ठ्नक्रा | अभाव अर्थात्‌ शान्तिका अमाव शान्तिका अमाव अर्थात्‌ | सखानुभूतिका अभाव पदार्थं सुखके हेतु दै, उनसे सुखकी अनुभूति नदीं होती सुखकी अनुभूति मन ओर मन-षंयक्त इ्दियोको दोती दे वह तभी होती है, जव मन संतति | ओर शान्त दोता है

वैज्ञानिक साधनोके विकासे पदारथका विस्तार हआ है; पर उसे मनुप्यके सुखका विस्तार हुआ दै यह कटना सरर नदीं हे

पदार्थविस्तार ओर सुखालमूति--ये दो विकल्प है कभी मनुष्य पदार्थ-विस्तारको प्राथयिकता देता है, सखुखान- भूतिको दूसरा थान कभी मनुष्य सुखानुमूतिकरो पराधभिकता ¦ देता है ओर पदाथैविस्तारको दूसरा खान प्रथम विक्यम त्याग संगरहसे प्रभावित होता दै ओर दूसरे वरिकल्यमे संग्रह त्यागसे प्रभावित होता दै वर्तमान युग इसी आक्रान्त है आज व्याग संग्रहे प्रभावित है

देखता हूं जँ तयाग ओर भोगकी रेवा आतपा जाती हैः धरम अथैसे संयुक्त होता ठै, ध्म अथ्त अधिक मरयकर वन जाता है| य॒दि हम चाहते धर्म एनः मतिष्ठित दो तो हम उरक विदद्‌ रूपका अध्ययन करं हम उख युगम धर्मेकी पुनः प्रतिष्ठकी वात कर रदे है जिस युगकरा नाम उपलबन्धिक्री दृष्टिमे वैज्ञानिकः रक्तिकी | दष्ते आणविक ओर शिश्चाकी दृति वोद्धिक दै। क्वा अवैद्धिकः अवरेशानिकं ओर शक्तिहीन ` पद्धति धर्मक उत्तम सम्भव है आज एते धर्मक आवद्यकता है, जे

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# धर्मकी महत्ता #

लुद्धिसे प्रचारित होः विन्ञानसे प्रतिहत दो ओर शक्तिसे दीननदो।

उपासनात्मक धर्म॑ अनावश्यक नदीं दैः उपासनात्मक धर्म पर्याप्त मी नदीं दै वदं ज्ञानः आचारमे सम्बद्ध होकर दी युगकी चुनें सकता है |

शाश्वत सत्यके साथ सामयिक मान्यतां ओर सामाजिक विविध विधानोका योग मी धर्मतक परहुचनेमे वाधा है

पर केवल द्गंन ओर तीका सामना कर

#

"=व्---्जदजच््जजजज््चच्च्व्वज===--------------------------------~-- ~ ~~~ -----------------=-= =-=

सामाजिकः राजनीतिकं ओर आर्थिक वन्धनसे मुक्त किं समाजः राजनीति ओर आशिक क्षे्नको प्रभावित" करनेवाला धर्मी वें प्रमावरार्ट सकत (3 आः सं ट्‌। वास्तवम्‌ प्रभावराटी हो सकता है ध्म॑से आत्मोदय दोता है, यद्‌ उसका वैयक्तिक खर्प है उसका प्रभावदाटी दोना उसक्रा सामाजिक स्वरूपे ये दोन रूम आज अपिन्षित हं ये शाश्चत ओर परितनकी मर्यादाको सम्चनेसे ही प्राप्त हो सकते दँ |

-=~्श्ञ्=

धमकी महता

( ठेखक-मदाभहिम डा० श्रीसर्वपटी राधरा्ृष्णन्‌ महोदय-राषटरूपति )

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